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________________ स्वार्थचिन्तामणिः सीसरे चौथे पांचवे यदि अनेक स्वभावों करके सम्बन्ध मानने पडेंगे और उन तीसरों मादिके सम्बन्धार्थं चौथे आदि अनेक स्वभाव मानने पड़ेंगे । पत्र कागज ) के समान गोंदका मी दूसरे गोंद से चिपकना मानोगे तो आकांक्षा शान्त न होनेसे अनवस्था दोष हो जाता है । उन भागे आगेवाले स्वभावका भी अन्य अन्य चौथे, पांच, आदि स्वभाव करके सम्बन्ध होनेसे कहीं भव-स्थान ( रुकना ) नहीं होपाता है । ५८० मुख्यस्वभावानामुपचरितैः स्वभावैस्तावद्भिरात्मनोऽसम्बन्धे नानाकार्यकरणं नानाप्रतिभासविषयत्वं चात्मनः किमुपचरितैरेव नानास्वभावैर्न स्यात् येन मुख्यस्वभावकल्पनं सफलमनुमन्येमहि । अभी नित्य आत्मवादी ही कह रहे हैं कि यदि जैन लोग अनवस्थाके निवारणार्थ उन अनेक मुख्यत्रभावोंका उतनी संख्यावाले मुख्य स्वभावोंसे आत्मा के साथ संबंध होना न मानेंगे, किंतु नापी गयी उतनी संख्यावाले उपचरित स्वभावोंसे ही उन मुख्य स्वभावका आत्मामें संबंध न . होते हुए भी " ये आत्मा के मुख्यस्वभाव हैं." इस प्रकारकी नियत व्यवस्था कर दी जायेगी । ऐसी दशा में आकांक्षायें न बढनेसे अनवस्था दोषका तो वारण हो गया। किंतु जैनोंका उन अनेक मुरूस्वभावका मानना व्यर्थ पडेगा | जैसे मुख्यस्वभावोंको धारण करनेके लिये पुनः आत्मामें दूसरे मुख्यस्वभाव नहीं माने जाते हैं किंतु कल्पित स्वभावोंसे ही वे मुख्यस्वभाव आत्मा के निय मिल कर दिये जाते हैं। यदि कल्पितस्वभाव मुख्यस्वभावको आत्मामें नियमित करनेकी व्यवस्था कर देते हैं तो वैसे ही उन कल्पित होरहे अनेक स्वभावों करके ही आत्मा के मुख्य स्वभावोंसे होनेवाले अनेक कार्यों को करना और अनेक ज्ञानोंका विषय हो जानारूप कार्य भी क्यों नहीं हो जायेंगे ? जिससे कि जैनों के मुख्य स्वभावोंकी कल्पना करनेको हम लोग सफल विचारपूर्वक समझे । भावार्थ - जैनोंके द्वारा वास्तविक स्वभावकी कल्पना करना व्यर्थ ही पड़ा | नानास्वभावानामात्मनोनर्थान्तरत्वे तु स्वभावा एव नात्मा कश्विदेको भिभेम्योनर्था-न्तरस्यैकत्वायोगात्, आस्मैव वा न केचित्स्वभावाः स्युः, यतो नोपचरितस्वभावन्यनस्थात्मनो न भवेत् । मी वे ही कह रहे हैं कि आत्माके अनेक स्वभावोंको जैन लोग यदि आत्मासे अभिन्न मानेंगे तब तो वे अनेक स्वभाव ही मानने चाहिये। एक आत्मा द्रव्य कोई भी न माना जावे, या क्षति है ? | मिन अनेक स्वभावसे जो अभिन्न है, वह एक हो भी नहीं सकता है। भला ऐसा कौन विचारशील है जो भिन्न अनेक स्वभावोंसे एक आत्माको अभिन्न कह देवे ! | तथा दूसरी बात यह है कि स्वभावको आत्मासे अभिन्न माननेपर आत्मा ही एक मान लिया जावे, दूसरे कोई अनेक स्वभाव न माने जावे जिससे कि मुख्य स्त्रभावोंके समान आत्मा के उपचरित स्वभाव मी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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