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________________ तस्वाचिन्तामणिः मन्यथा यानी यदि भिन्न लक्षणपना घट, पट आदिक में मी माना जावेगा सो पृथ्वी, अम्, तेज, वायु ये चारही तत्त्व है यह व्यवस्था नहीं बन सकेगी। पर, पट, पुस्तक, गृह मुकुट, शकट आदि अनेक तत्त्व स्वीकार करने पड़ेंगे। कुटपटादीनां मिमलक्षणत्वेऽपि तत्त्वान्तराभावे क्षित्यादीनामपि तत्त्वान्तराभावाद । जब कि घट, पट आदिकोंका मिक लक्षण होते हुए भी यदि आप मिलतत्तपना न मानोगे तो पृथ्वी, जल, तेज, वायुको मी न्यारा म्यास तल नहीं मानना चाहिये । नोके ऊपर स्यभिचार पुष्ट करते हुए पाकिको अपने पार तत्वोंको भी एक पुद्गल तत्त्वरूप माननेके लिये बाध्य होना पड़ेगा। धारणादिलक्षणसामान्यभेदापा तत्वान्तरत्वं न लक्षणविशेषभेदायेन घटपटादीनां तस्प्रसंग इति चेत्, हिं स्वसंविदिसत्वेवरत्वलक्षणमामान्यभेदानन्ययोजनान्तरलसाधनात् कर्थ कुटपटाभ्यां तस्य व्यभिचारः । स्यावादिना पुनर्विशेषलक्षणभेदाढ़ेदसाधनेऽपि न साभ्यामनेकान्तः, कपञ्चित्तवान्तरतया तयोर्भदोपगमात् । यदि चार्वाक यों कहे कि पृथ्वीका सामान्य लक्षण पदायाँको धारण करना है आदि यानी जलका लक्षण द्रवरूप बहना है, भमिका लक्षण उष्णता है और वायुका सामान्य लक्षण गमन, कम्पन, रूप ईरण करना है। सामान्यलक्षणोंके भेदसे वे तत्त्व भिन्न माने जाते हैं। किंतु विशेष लक्षगोसे तत्त्वों में भेद नहीं होता है जिससे कि घटपट आदि करके उस व्यभिचार दोषका प्रसङ्ग होवे विशेष लक्षणवाले तो एक तत्त्वके व्याप्य है । अतः घट, पट, पुस्तक आदिक एक पृथ्वी तत्त्वके परिणाम है। इस विशेषकक्षण के भेद होनेसे घट, पट आदिकोंको मिन्न तत्व होनेका पसंग नहीं है। इस प्रकार पाक्किी सामान्य लक्षणोंके भेदसे मिन्न तत्वोंकी व्यवस्था होनेपर तब तो इम जैन भी कहते हैं कि शरीर और चैतन्यमें मी सामान्यरूपसे लक्षणोंका भेद है । चेतना स्वसंवेदन रूप है स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे जानी जाचुकी हैं। और न्यारा शरीर इससे सर्वथा मिल पहिरिन्द्रियोंसे माहा है । इस प्रकार हमने पूर्वोक्त अनुमानसे सामान्यलक्षणोंके भेदरूप हेतु शरीर और पैतन्यका भिन्न तत्व होकर भेद सिद्ध किया है फिर चार्वाक लोग हमारे अनुमानमें उस विशेषलक्षणके भेदद्वारा हेतु और घट, पटसे कैसे व्यभिचार उठा सकते हैं । अर्थात् कथमपि नहीं। दूसरी बात यह है कि विशेष लक्षणों के भेदसे भी भेदसाधन करनेमें स्याद्वादियों के यहां तो उन पर, पटसे व्यभिचार नहीं है। क्योंकि शरीर और चतन्यके समान घट सभा एटमें मी कश्चित् तत्स्वान्तर रूपसे हम मेदको स्वीकार करते हैं। अन्तर इतना ही है कि शहर और भामा इम्बलपसे भेद है और घट, पट में भावरूपो भेद है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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