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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः चार्वाके प्रति और भी कहते हैं कि देह और चैतन्यका भिन्न भिन्न विशेष लक्षण होने से मिन तत्त्व होकर पृथक् भाय हैं। जैसे कि आप बार्वाक मतमें जल और अभितत्त्व निराले माने गये हैं । इस प्रकार अनुमान से भी शरीर से भिन्न आश्मा सिद्ध होता है । २१२ चैतन्यदेह सच्चान्तरत्वेन मिश्र मिश्रलक्षणत्वात् तोयतेजोवत् । इत्यत्र नासिदो हेतुः स्वसंवेदनलक्षणत्वाच्चैतन्यस्य, काठिन्यलक्षणत्वात् खित्यादिपरिणामात्मनो देहख, वयोर्मिनलक्षणत्वस्य सिद्धेः । ज्ञान और शरीर ( पक्ष ) अलग अलग पदार्थ होते हुए भिन्न हैं ( साध्य ) क्योंकि उन दोनोंका लक्षण व्यारा न्यारा है ( हेतु ) जैसे कि ठण्डा और गर्म स्पर्शवाले जछ और तेजस्तत्त्व आपने न्यारे माने हैं (अन्वय हृष्टांत ) यों इस अनुमानमें भिन्नलक्षणपना हेतु असिद्ध नहीं है क्योंकि पक्ष हेतु ठहरता है । क्योंकि चैतन्यका स्वके द्वारा स्वको जान लेना लक्षण है और पृथ्वी, जल, तेज, वायुका समुदित पर्याय रूप शरीरके कठिनपना, भारीपन, काला गोरापन आदि लक्षण हैं । इस कारण उन शरीर और चैतन्यका भिन्न भिन्न लक्षण युक्तपना सिद्ध है। हम जैनोंका हेतु निर्दोष है। परिणामपरिणामभावेन भेदसाधने सिद्धसाधनमिष पचान्यस्वमेति सा I देवचैतन्ययोः तत्त्वान्तरतया भेदसाधनमस्ति विशेषणात् । यदि चार्वाक यहां यों कहें कि शरीर परिणामी है और शरीरका परिणाम चैतन्य है । जैन लोग परिणाम और परिणामी रूपसे शरीर और शानका यदि उक्त अनुमानद्वारा भेव सिद्ध करते हैं तो आपने हमारे सिद्ध किए हुए पदार्थका ही साजन किया है । अतः जैनोंके ऊपर सिद्धसाधन दोष लगा। आचार्य कहते हैं कि यह चार्वाकका कहना युक्तियोंसे रहित है, क्योंकि हमने तस्वान्तररूपसे य साध्य के पेटमै भिनत होकर ऐसा भेदका विशेषण दिया है अर्थात् देह और सम्म का भिन्नपदार्थ रूपसे भेद सिद्ध करना इसको अभीष्ट है । परिणामी भावसे नहीं । 1 टपटायां भिमलक्षणाभ्यां तवान्तरत्वेन भेदरहिताभ्यामनेकान्त इति चेत्र । यत्र परेषां भिनलक्षणत्वासिद्धेरन्यया चत्वार्येव तस्वानीति व्यवस्थानुपपत्तेः । अनुमानमै चार्वाक यभिचार देता है कि मोटा बडा पेट, छोटी शंखकीसी श्रीवा तथा जलधारण कर सकना मे घडे के लक्षण हैं और आतान वितानरूप तन्तुवाला तथा शीतबाधाको दूर कर सकना ये कपडा के लक्षण हैं। यहां पट और पटमै मिलक्षणपना हेतु विद्यमान है । किंतु तत्त्वान्तररूपसे भेदस्वरूप साध्य यहां नहीं है ये सब पृथ्वीतत्त्व के त्रिवर्त हैं । ग्रंथकार कहते हैं किइस प्रकार हमारे देतुमें व्यभिचारदोष देना तो ठीक नहीं है। क्योंकि दूसरे चार्वाक लोगों के मसानुसार भी मिन्न लक्षणपना हेतु घट और पटमै सिद्ध नहीं है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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