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________________ १७० तत्वार्थचिन्तामणिः } अपने सम्बन्धी समवाय और समचायवाले आत्मा, ज्ञान आदिसे यदि अभिन्न है तब तो समवायवाले उन ज्ञान, आत्मा आदिका भी उस विशेष्यविशेषण सम्बन्धके समान तादात्म्यसंबन्ध सिद्ध हो जावेगा क्योंकि अभिन्नसे जो अभिन्न है उनका भेद होना विरुद्ध है । अर्थात् समवाय और समवाययाले ज्ञान, आत्मा आदि पदार्थों के बीच पड़ा हुआ विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध अपने दोनों सम्बन्धियोंसे अभिन्न है तब तो उन दोनों सम्बन्धियोंका भी अभेद ही कहना चाहिये । अभिन्न विशेष्यविशेषणभावसे उसके सम्बन्धी अभिन्न ही हैं । अतः सम्बन्धियों में भी अभेद मानना पडेगा । यही जैन सिद्धांत है । भिन्न एवेति चेत् कथं तैर्व्यपदिश्यते १ परसाद्विशेषेणविशेष्यभावादिति चेत्, स एव पर्यनुयोगोऽनवस्थानं च सुदूरमपि गत्वा स्वसंबन्धिभिः सम्बन्धस्य तादात्म्योपगमे परमतप्रसिद्धेर्न समवायिविशेषणत्वं नाम । यदि आप उस विशेष्यविशेषभावको उसके सम्बन्धियले भिन्न हो मानोगे यों तो " यह विशेष्यविशेषणभाव उन सम्बन्धियोंके साथ है " यह व्यवहार कैसे होगा ? बताओ। क्योंकि सर्वथा भेद में " उसका यह है, यह व्यवहार नहीं होता है, जैसे सह्यपर्वतका विन्ध्यपर्वत है या बम्बईका कलकता है, यह व्यवहार अलीक है । कथंचिद् भेद होनेपर ही षष्ठीविभक्ति उत्पन्न होती है। यदि आप वैशेषिक अपने विशेष्यविशेषणभाव और समवाय तथा समवायवान् इन सम्बन्धियों में मिन पडे हुए उस विशेष्यविशेषणभाव का फिर दूसरे विशेष्यविशेषणभाव से सम्बन्ध मानोगे तो वह दूसरा माना गया विशेष्यविशेषणसम्बन्ध भी अपने सम्बन्धियोंसे भिन्न पड़ा रहेगा, वहां भी " उनका यह है " इस व्यवहार के लिये तीसरा सम्बन्ध मानना पडेगा, उसको भी अपने सम्बन्धियों में रहना आवश्यक होंगा, अन्यथा वह सम्बन्धद्दीन बन सकेगा । इस तरहसे वही चौथे, पांचमे आदि सम्बन्धोंकी कल्पनाका चोद्य बढता जावेगा और परापरसम्बन्ध मानते हुए आकांक्षा शान्त न होगी, अतः आपके ऊपर अनवस्था दोष आवेगा। कहीं सैकड़ों, हजारों, सम्बन्धोंकी कल्पनाके बाद बहुत दूर जाकर भी उस सम्बन्धका अपने सम्बन्धियों के साथ यदि तादात्म्यसम्बन्ध मानोगे तो दूसरों के मत यानी जैन सिद्धान्तकी प्रसिद्धि हो जावेगी, अति निकटमें ही तादालय क्यों न मान लिया जावे, भेद पक्ष लेकर इतना परिश्रम क्यों किया जारहा है ? | इस प्रकार सिद्ध समवायियों में विशेषणता सम्बन्धसे भी समवाय नाममात्रको भी आश्रित नहीं हो जिससे कि उनका विशेषण होसके । हुआ कि सकता है । 2 विशेषणत्वे चैतस्य विचित्रसमवायिनाम् । विशेषणत्वे नानात्वप्राप्तिर्दण्डकटादिवत् ॥ ७३ ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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