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________________ सत्त्वाचिन्तामणिः १६९ 1 I 1 समवायका रहना मानोगे । यह तो ठीक नहीं है, क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्यमें संयोग सम्बन्धसे रहा करता है । जैसे कि भूतल में घट या देवदत्तमें कुण्डल अर्थात द्रव्यका अन्यद्रव्य के साथ संयोगसम्बन्ध होता है । जब कि समवाय स्वयं द्रव्य नहीं है तो वह संयोगसम्बन्धसे किसी आश्रयमे ठहर नहीं सकता है । संयोगसम्बन्ध तो द्रव्यमें ही रहता है । समयायपदार्थ संयोगका आश्रय नहीं है । यदि समवायका अपने आधारोंमें रहना समवायसंबन्धसे मानोगे, वह भी मानना युक्तियोंसे रहित है । क्योंकि द्विष्ठसम्बन्ध आदेव और आधार दोनोंमें स्थित रहता है जैसे कि समवायसम्बन्धसे ज्ञान आत्मामें रहता है। यहां समवायसम्बन्ध प्रतियोगी ज्ञानमें भी है और अनुयोगी आत्मा भी है। तभी तो वह दोनोंको मिला देता है। इसी प्रकार वैशेषिकोंके यहां गुण माने गये संयोगसम्बन्धी कुण्डल आधेय और देवदत्त आधारमें समवाय सम्बन्धले वृत्ति है तभी तो दोनोंको संयुक्त कर देता है। प्रकरण में समवायसम्बन्धर्मे रहनेवाला दूसरा समवाय कोई आपने माना नहीं है । फिर भला समवाय सम्बन्धसे समवाधकी आत्मा, ज्ञान आदिमें कैसे वृत्ति हो सकती है ? आपने समवायसम्बन्धवाले द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य और विशेष ये पांच पदार्थ माने हैं । समवाय और अमाव इन दोनों में समवायसम्बन्ध नहीं स्वीकार किया है । I विशेषण मावेनेति चेत्, कथं समवायिभिरसंबद्धस्य तस्य तद्विशेषणभावो निश्चीयते ? वैशेषिकमत के औलक्ष्यदर्शनमें समवाय और अभावका विशेष्यविशेषणता सम्बन्ध माना गया है । आचार्य कहते हैं कि यदि आप सनवायियोंके साथ समवायका विशेषणविशेष्यभावसम्बन्ध मानोगे यों तो समवायीरूप विशेष्योंके साथ किसी अन्यसम्बन्धसे नहीं सम्बन्धित होता हुआ यह समवाय उन समवायिओंका विशेषण है यह कैसे निश्चित किया जावे ! बताओ, दूसरे सम्म से विशेष्य में विशेषणका सम्बन्ध निश्चय किये विना विशेष्यविशेषणभाव नहीं बनता है । जैसे कि दण्ड और पुरुषका संयोग होने पर ही पीछेसे विशेषणविशेष्यभाव-सम्बन्ध माना जाता है | समवायिनो विशेष्याः समवायो विशेषणमिति प्रतीतेर्विशेषणविशेष्यभाव एक सम्बन्धः समवायिभिः समवायस्येति चेत् स तर्हि ततो यद्यभिभस्तद्वा समवायिनां तादात्म्यसिद्धिरभिन्नादभिन्नानां तेषां तद्वद्भेदविरोधात्. । कणाद के अनुयायी कहते हैं कि "समवायवाले द्रव्य आदिक पांच पदार्थ तो विशेष्य है और उनमै रहनेवाला एक समवाय विशेषण है " इस प्रकार सम्पूर्णजनोंको प्रतीत हो रहा है । अतः दूसरे सम्बन्धके बिना भी समवाथियोंके साथ समवायका विशेष्यविशेषणभाव सम्बन्ध सिद्ध ही है । यदि वैशेषिक ऐसा कहेंगे ऐसी दशामें तो हम जैन पूंछते हैं कि वह विशेष्यविशेषणसम्बन्ध उन २९
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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