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________________ तस्वाचिन्तामणिः mara.. ... ..... प्रत्यक्ष था । इसपर हम जैन पूंछते हैं कि उन पुरिखाओंकी सत्ताको सिद्ध करनेवाला आपके पास कौनसा प्रमाण है ! कहिये न। उस देश और उस कालमें होनेवाले किन्ही किन्ही मनुष्योंकी प्रत्यक्षताका आफ्को प्रत्यक्ष है या नहीं ? बताओ। पहिले पक्षके अनुसार उन पुरुषोंका प्रत्यक्ष करना आपको प्रत्यक्षरूपसे नहीं दीख सकता है। क्योंकि अन्य पुरुषों में रहनेवाला प्रत्यक्षज्ञान अतीन्द्रिय है | आपकी इन्द्रियों का विषय नहीं है। ___यदि आपके गुरु, पुरिखाओंको देखनेवाले मनुष्यों के प्रत्यक्ष करनेको वर्तमानमें आप प्रत्यक्ष रूपसे नहीं जानते हैं, यह दूसरा पक्ष लोगे तो वे प्रत्यक्ष और प्रत्यक्षके विषय आपके पुरिखा यदि विद्यमान हैं, तब तो उस ही प्रकारसे आपका दिया गया प्रत्यक्षनिवृत्तिरूप अनुपलब्धि हेतु ध्यमिचारी होगया, और यदि उन पुरुषों के प्रत्यक्ष करनेको आप प्रत्यक्ष नहीं कर रहे हैं, इस कारण वे नहीं हैं, तब व्यभिचार दोष तो निवृत होगया, किंतु आपके गुरु, पावा, पटबाबा, फूफा आदि किसीके भी प्रत्यक्षगोचर नहीं है, यह कहना प्राप्त हुआ। ऐसी दशा, उन आपके गुरु माता पिताओंसे व्यभिचार दोषको प्राप्त हुयी अनुपलब्धि ( हेतु ) मोक्षके अमावको केसे सिद्ध कर सकेगी! बिससे कि प्रमाणोंसे सिद्ध न होमेके कारण ऊपर कहे हुये लक्षणसे मोक्षरूप तत्त्व लक्ष्य न मनसके। भावार्थ-पूर्व पुरुषों के समान मोक्ष मी ममाणोंसे सिद्ध है और उसका लक्षण सम्पूर्ण कर्मसि रहित होकर स्वामाविक गुणोंकी प्राप्ति होजाना है। को पुनस्तस्प मार्ग इत्याहा मोक्ष शब्दका निर्वचन करचुके, सो चोखा है। फिर उस मोक्षका मार्ग क्या है ? । मार्ग तो नगर, देश, पर्वत आदिकका हो सकता है। स्वरूपमासिका मार्ग कैसा है ! ऐसा प्रश्न होनेपर आचार्य महाराज उसका स्पष्ट उच्चर कहते हैं स्वाभिप्रेतप्रदेशाप्तरुपायो निरुपद्रवः । सन्निः प्रशस्यते मार्गः कुमागोंऽन्योऽवगम्यते ॥ ५॥ अपने अभीष्ट माने गये प्रदेश ( स्थान ) की प्राप्तिका विघ्नरहित जो उपाय है, सज्जन पुरुषोंसे वही प्रशंसनीय मार्ग कहा जाता है। उससे मिन्न कुमार्ग समझा जाता है। यह मार्गका लक्षण नगरके मार्ग और मोक्षके मार्ग इन दोनो में घट जाता है । सत्यार्थ विचारा जाय तो मार्गका लक्षण प्रधानरूपसे मोक्षमार्गमें ही घटित होता है । अन्यत्र उपचरित है। ___ न हि स्वयमनभिप्रेतप्रदेशारुपायोऽभिप्रेतप्रदेशाप्रुपायो वा मार्गो नाम, सर्वस्य सर्वेमार्गस्वप्रसा, नापि तदुपाय एव स्रोपद्रवः सद्भिः प्रशस्यते तस्य कुमार्गत्वात् , तथा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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