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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः ??{ चमार्गेरन्वेषण क्रियस्य करणसाधने पनि सति मार्ग्यतेऽनेनान्विष्यतेऽभिप्रेतः प्रदेश इति मार्गः, शुद्धिकर्मणो वा मृजेर्मृष्टः शुद्धोसाविति मार्गः प्रसिद्धो भवति । जो स्वयं अपनेको अभीष्ट नहीं है, ऐसे प्रदेशकी प्राप्तिके उपायको अथवा जो हमको तो अभीष्ट नहीं है, किंतु अन्य लोलुपी जनोंको इष्ट है, ऐसे प्रदेशकी प्राप्तिके उपायको हम सच्चा मार्ग नहीं कहते हैं, अन्यथा यों तो सब ही को सर्व विषयोंके मार्गपनेका प्रसंग हो आवेगा । तथा उस इष्टप्रदेशकी प्राप्तिका विघ्नोंसे सहित उपाय ही सज्जन पुरुषोंसे प्रशंसनीय नहीं है, ओ उपाय बाधाओं से सहित है, वह कुमार्ग है । इस प्रकार चुरादि गणकी " मार्ग अन्वेषणे " इस ढूंढन क्रियारूप अर्थको कहनेवाली मार्गे धातुसे करण कारक अर्थको साधनेवाली व्युत्पत्तिसे करण बन् प्रत्यय करनेपर मार्गे शब्द निप्पन्न होता है । जिससे अभीष्ट प्रदेश ढूंढा जावे, यह मार्ग शब्दका अर्थ हुआ । अथवा अदादि गणकी " मृज् शुद्धौ " इस शुद्धि क्रियारूप अर्थवाली मृज् भातुसे कर्म में घञ्प्रत्यय करने पर मार्ग शब्द बनता है । इसका अर्थ है कि जो शुद्ध है, यानी फांटा, ess आदि उपद्रवोंसे रहित है, वह प्रसिद्ध मार्ग होता है । न चैवार्थाभ्यन्तरीकरणात्सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षमार्ग इति युक्तम्, तस्य स्वयं मार्गलक्षणयुक्तत्वात्, पाटलिपुत्रादिमार्गस्यैव तदुपमेयत्वोपपत्तेर्मार्गलक्षणस्य निरुपद्रवस्य कान्तो ऽसम्भवात् । श्रीफलक देवके मतानुसार " मार्ग इव मार्गः " ऐसा इवका अर्थ सादृश्यको अंतरंग करके सम्यग्दर्शन आदि मोक्षके मार्ग है अर्थात् जैसे कांटा, कङ्करी, पथरी लुटेरे आदि दोषोंसे रहित मार्ग द्वारा मनुष्य नगर, आम, गृह, उद्यान आदि अभीष्ट स्थानको चले जाते हैं, वैसे ही मिध्यादर्शन, अचारित्र, कुज्ञान आदि दोषोंसे रहित होरहे रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग करके मुमुक्षु जीव मोक्षको चले जाते हैं । अतः रत्नत्रय तो उपमेय है और नगरतक फैला हुआ मार्ग ( पक्की सडक ) उपमान है, यह कहना युक्त नहीं है। क्योंकि वास्तवमै मार्गके लक्षण से युक्त वह स्वयं र यही है। पटना, कालिकाता आदि मार्गों ( आदम सडक ) को ही उसका उपमेयपना सिद्ध है। पूर्णरूप से उपद्रवरहितपना रक्षत्रयमें है और थोडेसे कण्टक, चोर आदिके उपद्रवोंसे रहितपना पटनाको जानेवाली सडकमें है। जिसमें अधिक गुण होते हैं, वह उपमान होता है, जैसे कि चंद्रमा और न्यून गुणवाला उपमेय होता है जैसे मुख । उपमा अलंकार में स्वच्छ जल उपमान है और मुनिमहाराजका मन उपमेय है, किंतु " मुनिमनसम उज्ज्वलनीर " यहां प्रदीप अकारमे मुनिमद्वाराका मन उपमान है और जल उपमेय है । वास्तवमे यही ठीक भी है। पकरणमे पूर्ण रूप से उपद्रव रहितपना पटना, कानपुरको जाने वाले पंथाओं में नहीं है । असम्भव है। अधिकारियों द्वारा पूर्ण प्रबंध करनेपर भी कतिपय उपद्रव है ही। इसकारण प्रधानपनेसे मोक्षमार्ग ही उपमान है। शेष पंथा
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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