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________________ ५४० तत्त्वार्थचिन्तामणिः सामग्री यावती यस्य जनिका सम्प्रतीयते । तावती नातिवत्यैव मोक्षस्यापीति केचन ॥ ११५ ॥ पुनः कोई बोले कि जिस कार्यको उत्पन्न करनेवाली जितनी कारणसमुदायरूप सामग्री अच्छी तरह देखी जारही है, यह कार्य उतनी सामग्रीका उल्लंघन कथमपि नहीं कर सकता है अर्थात् उतने सम्पूर्ण कारणोंके मिलनेपर ही विवक्षित कार्यकी उत्पत्ति हो सकेगी। मोक्षरूप कार्यके लिये भी सम्यग्दर्शन आदि तथा चारित्रगुणके स्वभावोंको विकसित करनेके लिये आवश्यक कहा जारहा हवे, चौपाय, गुणस्थान में अबस्थानकाल जैसे अपेक्षित है, वैसे ही सञ्चित कर्मोका फलो पभोग होना मी हम नैयायिक और सांख्योंके मतमें माना गया है, इस प्रकार कोई फहरहे हैं। इसकी व्याख्या यों है कि यस्य यावती सामग्री अनिका दृष्टा तस्य तावत्येव प्रत्येया, यथा यवबीजादिसामग्री यवाङ्करस्य, तथा सम्यग्ज्ञानादिसामग्री मोक्षस्य जनिका सम्प्रतीयते, ततो नैव सातिवर्तनीया, मिथ्याज्ञानादिसामग्री च बन्धस्य जानिकेति मोक्षवन्धकारणसंख्यानियमः, विपर्ययादेव बन्धो ज्ञानादेव मोक्ष इति नेष्यत एव, परस्यापि सञ्चितकर्मफलोपभोगादेरभीष्टत्वादिति केचित् । जिस कार्यको उपादान कारण, सहकारी कारण, उदासीन कारण, प्रेरक कारण और अवलम्ब कारणोंकी समुदायरूप जितनी सामग्री उत्पन्न करती हुयी देखी गयी है, उस कार्यके लिये उतनी ही सामग्रीकी अपेक्षा करना आवश्यक समझना चाहिये। उस सामग्रीको अपेक्षा न कर केवल एक दो कारणसे ही होता हुआ कार्य नहीं देखा गया है । इस फ्लप्त कार्यकारणमावका कोई भी शक्ति परिवर्तन नहीं करसकती है। जैसे कि जौका बीज, मिट्टी, पानी, मन्दवायु, इत्यादि कारणों के समुदायरूप सामग्री जौका अङ्गुर उत्पन्न होजाता है, वैसे ही सम्यग्ज्ञान, फलोपमोग, दीक्षा, काल आदि कारणकूट भी मोशरूपकार्यके जनक अच्छे प्रकारसे निर्णीत होरहे हैं। इस कारणसे मोक्षरूपी कार्य उस अपनी सामग्रीका उलंघन नहीं कर सकता है। और मिथ्याज्ञान, दोष, पाक्रिया करना, निषिद्ध आचरण करना, नित्य, नैमित्तिक फाँको न करना आदि कारणसमुदाय बंधके जनक है । इस प्रकार मोक्ष और बंधके कारणों की संख्याका नियम होरहा है। कोई मोल नहीं है। अकेले विपर्ययज्ञानसे ही पंघ होजाना और केवल तत्त्वज्ञानसे ही मोक्ष होजाना यह हम इष्ट नहीं करते हैं। दूसरे हम लोगोंके यहाँ भी पहिले एकत्रित किये हुए कर्मोके कलोपभोग, तपस्या, वैराग्य, आदि कारणसमुदायसे ही मोक्ष होना अच्छा इष्ट किया है। इस प्रकार कोई कापिस और वैशेषिक कहरहे हैं । इनका अभिप्राय यही है कि जब आप जैनोंको भी सामग्री
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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