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________________ तत्त्वाचिन्तामणिः ५६९ उस पंच मोक्षके प्रकरणमें मिथ्यादर्शन नामक विभावके निमिउसे होता हुआ बंध तो सम्यग्दर्शन स्वभावसे निवृत्त होजाता है। और अप्रत्याख्यानाचरण, प्रत्याख्यानावरण कषायके उदय होनेपर उत्पन्न हुए कुचारित्रसे होता हुआ बंध इंद्रिय संग्रम और प्राणसंयमरुप विरति करके ही नष्ट होजाता है। तथा संज्वलनके तीब्र उदय होनेपर होनेवाले प्रमादोंसे होता हुआ बंध सातवमें अप्रमाद होनेसे दूर होजाता है। एवं सज्वलन कषायके मन्द उदयोसे होता हुआ बंध भी चारित्र मोहका उपशम या क्षयरूप अकषाय मावसे ग्यारहवे, बारहवें, सेरहवें गुणस्थानों में दूर हो जाता है। अन्तर्भ योगसे होनेवाला बन्ध चौदहवे गुणस्थानकी अयोगअवस्थासे ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार क्रमसे पांच बंध हेतुओंके भेद प्रभेदोंसे होनेवाले बन्धोंकी पहिलेमें सोलह, दूसरेमें पचीस, चौमें दस, पांचवेमें चार, छठवेमें छह, सातवेमें एक, आठवेम छत्तीस, नौवेमें पांच, दसवमें सोलह और तेरहवें गुणस्थानमें एक इस प्रकार बंघ योग्य १२० काँकी बंध व्युच्छित्ति होनेका नियम है । अतः अयोग गुणस्थानसे पीछे होनेवाली मुक्ति के पहिले तेरहवे गुणस्थान और चौदहवें गुणस्थानके कालमें जिनेंद्रदेवका संसारमै स्थित रहना सिद्ध हो जाता है। मिथ्यादर्शनाद्भवन् बंधः दर्शनेन निवत्यते, तस्य वनिदानविरोधित्वात् । मिथ्यामानाद्भवन् बंधा सत्यज्ञानेन निवर्त्यत इत्यप्यनेनोक्तं, मिथ्याचारित्रागवन्सचारित्रण, प्रमादाद्भवनप्रमादेन, कपायाद्भवनकषायेण, योगाद्भवन्नयोगेन स निवर्यंत इत्ययोगगुणानन्तरं मोक्षस्याविर्भावात्सयोगायोगगुणस्थानयोर्भगषदहत स्थिसिरपि प्रसिद्धा भवति । पंधके पांच कारणों में पडे हुए मिथ्यादर्शनसे हो रहा बंध झट सभ्यग्दर्शनसे निवृत कर दिया जाता है । क्योंकि वह सम्यग्दर्शन तो बन्धके आदि कारण माने गये उस मिथ्यातका विरोधी है। इस कथनकी सामर्थ्यसे यह भी कह दिया गया है कि मिथ्याशानसे हो रहे षका सम्बाहानसे निवन हो जाता है । तथा मिथ्याचारित्रसे होता हुमा बंध सम्यक्चारित्रसे नष्ट कर दिया जाता है । एवं प्रमादसे होता हुआ छह प्रकृतियोंका बंध अप्रमादसे नष्ट कर दिया जाता है। और कषायोंसे होनेवाला बंध अकषायमावसे तथा योगसे होता हुआ सातवेदनीयका यह मंघ अमोगभावसे ध्वस्त कर दिया जाता है। इस प्रकार आमाके स्वामाविक परिणाम कहे गये अयोग गुणस्थानके अन्तमें होनेवाली मुक्तिके प्रगट हो जानेसे पहिले तेरहवें सयोग और चौदहवे अयोग गुणस्थान दोनों में भगवान् श्री अन्तिदेवकी उपदेश देने के लिये यहां स्थिति भी प्रसिब हो माती है। उस अधिकसे अधिक कुछ अन्तर्मुहर्त अधिक आठ वर्ष कमती एककोटि पूर्व वर्ष तक सर्वज्ञ मगवान् मन्यजीवोंके लिये तत्त्वोंका उपदेश देते हैं और कमसे कम तेरहवें गुणस्थानमें कतिपय अन्तर्मुहूर्त ठहरकर तत्त्वार्थोंका उपदेश देते हुए पञ्च लधु मक्षर प्रमाण अयोग गुणस्थानके भनंतर कालमें मुक्तिको प्राप्त कर लेते हैं।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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