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________________ सस्वाचिन्तामणिः मशक्यविवेचनत्वं तथैकपुलादिद्रव्याकाराणामपीति ज्ञानवहालमपि चित्रं सिद्धयत्कर्थ प्रतिषेध्य येन चित्राद्वैत सिद्धयेत् । यहां चित्राद्वैतवादीका स्वपक्षके अवधारण पूर्वक कहना है कि इस प्रकार विचित्र आकारवाले एक ज्ञानका टुकडा किया जावेगा तो वह खण्ड करना ज्ञान के विषयमत अर्थों में पड़ता है। क्या घट, पट, पुस्तकको एकदम जाननेवाले समूहालम्बन ज्ञानके टुकडे हो सकते हैं ? यदि कोई आहार्य बुद्धिसे टुकडे करेगा भी तो समूहालम्बनके विषयोंपर वह भेद करना पडेगा । इस कारण चित्रज्ञानके आकारों में भी भेदकरण नहीं होता है । इसपर आचार्य कहते हैं कि तब तो इस प्रकार माणिके अवयवोंसे एकत्वरूप बन्धनको प्राप्त होरहे मणिद्रव्यके आकारोंका भी विवेचन करना, उसी प्रकार मणिखण्डरूप नानाद्रव्योंके आकारों में पड़ेगा। इस कारण एक मणिके उन आकारोंका भेद करण नहीं हो सकता है। अतः मणिका भी विवेचन न होओ। इस कारण एक ज्ञानके आकारोंका जैसे भेद करना शक्य नहीं है, उसी प्रकार एक पुद्गल या एक आत्मा आदि द्रव्यके रूप, रस आदिक या ज्ञान सुख आदि आकारोंका भी यों भेदकरण नहीं हो सकता है । तथा च अतरंग ज्ञानके चित्राद्वैतके समान बहिरंग रूपाद्वैत, रसाद्वैत, शहाद्वैत, भोजनाद्वैत आदि भी चित्र सिद्ध होजावेगे, एवं च सिद्ध होते होते अनेक अद्वैतोंके सिद्ध होने पर द्वैतवादका आप कैसे निषेध करोगे ? जिससे कि आपका चित्राद्वैत सिद्ध होजावे । न च सिद्धपि तस्मिन् मार्गोपदेशनास्ति, तत्त्वतो मोक्षतन्मार्गादेरभावात् । यदि चित्राद्वैत आपके मतानुसार सिद्ध भी मानलिया जाये तो भी मोक्षमार्गका उपदेश नहीं हो सकता है क्योंकि अद्वैतवादमै वास्तविक रूपसे मोक्ष और उस मोक्षका मार्ग तथा उपदेशक, उपवेश्व आदिका अभाव है। संवेदनाद्वैसे तदभावोऽनेन निवेदितः । इस चित्राद्वैत पक्षमे मोक्ष और उसके मार्ग तथा उपदेशका निराकरण करनेसे शुद्ध ज्ञानादैतमें भी उस भोक्षमार्गके उपदेशका अभाव निवेदन करदिया है । शुद्ध ज्ञानाद्वैतवादी ज्ञानके ग्राह्याकार, ग्राहकाकार, नीलाकार, पीताकार आदि कोई भी अंश नहीं मानते हैं, “ विचिर पृथकभावे" धातुका अर्थ है न्यारा न्यारा करना और “ विचल विचारणे " का अर्थ विचार करना है, विशिष्टाद्वैतवादी ग्राह्य आकारोंका विचार करना अर्थ लेते हैं और शुद्धाद्वैतवादी पृथक् करना अर्थ प्रहण करते हैं, एवं अद्वैतवादमें मोक्ष और मोक्षमार्गकी व्यवस्था कथमपि नहीं बनती है। प्रत्यक्षादिभिर्भेदप्रसिद्धः तद्विरुद्धं च चित्रायद्वैतमिति सुगतमतादन्य एवोपशमविर्भार्गः सिद्धः ततो न सुगपत्तत्प्रणेता ब्रह्मवत् । 27
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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