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________________ तस्वार्थचिन्तामणिः तविशिष्टोंसे भिन्न भिन्न होकर ज्ञानसे ग्रहण करनेकी अशक्यता है । यह आप जैनोंके हेतुका अर्थ है, तब तो अशक्यविवेचनत्व हेतु अपने गुण, गुणी, आदि पक्षमे रहता नहीं है। अतः स्वरूपासिद्ध हेवाभास है । क्योंकि गुण, क्रिया आदिकोंका द्रव्यसे मिन्न होकरके ग्रहण हो रहा है। ज्ञानके द्वारा उन गुण आदिकका प्रतिभास होनेपर द्रव्यका प्रतिमास नहीं होता है और द्रव्यको जाननेवाले ज्ञानमै गुण आदिककी प्रतीति नहीं होती है । दालमें नीबूके रसका प्रत्यक्ष हो जानेपर भी रसवान् द्रव्यको प्रतीति नहीं है और आंखसे देखे हुए पत्यरमै उसके रसका ज्ञान नहीं हो पाता है । यदि आप स्याद्वादी उस अशक्यविवेचनत्व हेतुका यह अर्थ करोगे कि गुणसे गुणीका देश भिन्न नहीं कर सकते हैं और गुणीसे गुण भी भिन्न देशमें नहीं किया जा सकता है । इसी प्रकार घट घटव आदिका भी देश भिन्न नहीं है, इस कारण गुण, गुणी आदि अभिन्न हैं । ऐसा माननेपर तो आप जैनोका हेतु काल, आकाश, दिशा, आदिसे व्यभिचारी हो जावेगा। जिस देशमें काल है उसी देशमे आकाश, वायु, आतप ( घूप) पुद्गलवर्गणायें भी विधमान हैं एतावता क्या वे सब अभिन्न हैं ! कथमपि नहीं, इस प्रकार कोई वैशेषिक कह रहा है । अब अन्धकार कहते हैं कि___तदनवबोधविजृम्भिवम् । स्वाश्रयद्रव्याद्रव्यान्तरं नेतुमशक्यत्वस्याशस्यविवेचनस्वस्य कथनात् । न च तदसिद्धमनैकान्तिकत्वं साध्यधर्मिणि सद्भावाविपक्षाब्यावृतेश्च । तम गुणादीनां कयंचिद् द्रव्यतादात्यपरिणामेनावभासमानमसिद्धम्, नापि द्रव्यपरिणामवं, येन साध्यशून्यं वा निदर्शनमनुमन्यते, समवायो वार्थस्यैव पर्यायो न सिद्धयेत् । वैशेषिकका वह उक्त कथन तो बैन सिद्धान्तको न जानकर व्यथकी चेष्टा करना है । सुनिये। हमारे यहां अशक्यविवेचनत्र हेतुका यह अर्थ कहा गया है कि गुण आदिकोंकी अपने आधारभूत द्रव्यसे दूसरे द्रव्यपर लेजानेके लिये अमक्यता है । देवदत्तका ज्ञान यजदच की आत्मामै नहीं प्रविष्ट होता है, गुरुके द्वारा पढानेपर शिष्यका ज्ञान ही उसकी आत्मामें विकासको प्राप्त होता है । कोटि प्रयत्न करनेपर भी गुरुका ज्ञान शिष्यकी आत्मामें नहीं पहुंच पाता है । अन्यथा पंडितोंके लडके विना प्रयत्नके पंडित बन जाये। पुद्गलका रूप, रस, गुण आत्मामें नहीं प्राप्त कराया जाता है और आस्माके ज्ञान, सुख पुन लगन्यमें नहीं रखे जासकते हैं। प्रत्येक ज्ञान, रूप, आविक गुणों (पक्ष ) में उक्त प्रकारका अनक्यविवेचनख हेतु स्थित है, अतः असिद्धहेत्वाभास नहीं है क्योंकि वह साध्यधर्मवाले पक्षमें विद्यमान है । और वह अशक्यविवेचनत्व हेतु सर्वथा भिन्न होरहे दण्ड, छत्र, कुण्डल आदि विपझोंमें वृत्ति नहीं है, यों विपक्षसे व्यावृत्ति होरही है, इस कारण व्यभिचारी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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