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________________ चिन्तामणिः ३१३ नहि विशेषणज्ञानं प्रमाणं विशेष्यज्ञानं तत्फलमित्यभिदधानस्तत्तस्य ज्ञापकमिति मन्यते । किं तर्हि ? विशेष्यज्ञानोत्पत्तिसामग्रीत्वेन विशेषणज्ञानं प्रमाणमिति, तथा मन्यमानस्य च कानवस्था नामोति । तदेतदपि नातिविचार सहम्, एकात्मसमवेतानन्तरज्ञानग्राममर्थंज्ञानमिति सिद्धान्तविरोधात्, यथैव हि विशेषणार्थज्ञानं पूर्वे प्रमाणफलं प्रतिपत्तुराकाङ्क्षानिवृत्तिहेतुत्वान्न ज्ञानान्तरमपेक्षते तथा विशेष्यार्थज्ञानमपि विशेषणज्ञानफलत्वात्तस्य । 1 जैनोंके प्रति पुनः नैयायिक कहते हैं कि विशेषण के ज्ञानको प्रमाण और विशेष्य के ज्ञानको उसका फल यों कहनेवाला नैयायिक वह विशेषणज्ञान उस विशेष्यका ज्ञापक है ऐसा नहीं मान रहा है तो क्या मानता है ? इसका उत्तर सुनिये ! विशेष्मज्ञानकी उत्पत्ति एक विशेषणज्ञान भी कारणसामग्री में पड़ा हुआ है अतः सामान्य कारण होते हुए भी विशेषणज्ञान प्रमाण है । इस प्रकार ऐसे माननेवाले नैया का हुआ ! आचार्य कहते हैं। कि इस प्रकार वह नैयायिकका कहना भी परीक्षारूप विचारको अधिक सहन नहीं कर सकता है। क्योंकि नैयायिकों का सिद्धांत है कि घट आदिक अथका ज्ञान उसी एक आत्मामें समवायसम्बंचसे रहनेवाले अव्यवहित द्वितीय क्षणवर्ती ज्ञानके द्वारा ग्राह्य हो जाता है । जब कि नैयायिक विशेषणज्ञानको विशेष्यज्ञानका कारण मानते हैं और कारण अव्यवहित पूर्व समयमें रहता है । ऐसी दशा कार्य और कारणरूप दोनों ज्ञान अंधेरे में पढे हुए हैं। जिस समय आप विशेष्यज्ञान होना मानते हैं उस समय तो विशेषण ज्ञानको जाननेवाले द्वितीय ज्ञानके उत्पन्न हो जानेका अवसर है | अतः उक्त सिद्धांन्ससे विशेष आया, और जैसे ही विशेषणरूप अर्थका ज्ञान पहिले विशेषण और इंद्रिय के सन्निकर्षरूप प्रमाणका फल हो चुका है, वह ज्ञाताकी आकांक्षाओंकी निवृत्तिका हेतु हो जानेसे दूसरे ज्ञानोंकी अपेक्षा नहीं करता है, वैसे ही विशेष्यरूप अर्थका ज्ञान भी उस विशेषण ज्ञानरूप प्रमाणका फल हो जानेके कारण अपने जाननेमें दूसरे ज्ञानोंकी अपेक्षा न करेगा । ऐसा माननेपर अनवस्था दोष तो इट गया किंतु आपका यह सिद्धांत कहां रहा कि पहिला ज्ञान दूसरे ज्ञानसे अवश्य जाना जाता है। विशेष यह है कि नैयायिक लोग बीचमे पडे हुए विशेषणज्ञानको दण्ड आदिक विशेषणोंके साथ हुए चक्षुरादिक इंद्रियोंके सन्निकर्षका प्रमाणरूप फल मानते हैं और भविष्यमें होनेवाले विशेष्यज्ञानका कारण मानते हुए विशेषणज्ञानको प्रमाण भी मानते हैं। यदि पुनर्विशेषणविशेष्यार्थज्ञानस्य स्वरूपापरिच्छेद करवाहस्वात्मनि क्रियाविरोधादपरज्ञानेन वेद्यमानतेष्टा तदा तदपि तद्वेदकं ज्ञानमपरेण ज्ञानेन बेयमिष्यतामित्यनवस्था दुःपरिहारा | यदि नै फिर थों कहेंगे कि विशेषणरूप अर्थ और विशेष्यरूप अर्थका ज्ञान अपने स्वरूपका ज्ञापक नहीं है क्योंकि जानने रूप कियाका जानना रूप में ही होनेका विरोध है । 40
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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