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________________ सत्त्वावचिन्तामणिः प्रामाकर अपनी पहिली शंका करते हुए अनुनय करते हैं कि प्रमाणका फल ज्ञप्ति होना है और वह शप्ति तो अर्थका जाना जा रहापन है । उस परिच्छित्तिक्रियाके द्वारा जाने गयेपनकी प्रतीतिको ही ज्ञतिक्रियाक कर्मपनकी प्रतीति कहते हैं । इस कारण फलरूप परिच्छित्तिको कर्मपना भी बन जाता है। ऐसा कहनेपर तो हम जैन पूंछते हैं कि फिर यो बताओ कि यह इप्ति क्या अर्थका धर्म है ! या आत्माका धर्म है ! यदि आप अर्थकी ज्ञप्सिको इस प्रकार घर, पट आदि अर्थों का स्वभाव मानेंगे तब तो घट या उसके रूप, रस आदि अर्थोके समान वइ प्रमाणका फल न हो सकेगी, विशेष है । अर्थक धर्म तो प्रमाणके फल नहीं हो सकते हैं अन्यमा चेतनके फल काला, नीला, शीत, उष्ण भी हो जावेंगे ! यदि अर्थकी उस इप्तिको प्रमाता-आत्माका धर्म मानोगे, तब तो वह अर्थकी झप्ति मला कर्म कैसे हो सकेगी। क्योंकि कर्मापनेसे उसकी प्रतीति हो रही है । कर्ताके धोका कर्मपनेके साथ विरोष है। न कर्मकारक नापि कर्वकारकंपरिच्छित्तिः क्रियात्वात्, क्रियायाः कारकस्वायोगात् । क्रियाविशिष्टस्य द्रव्यस्यैव कारकत्वोपपत्तेरिति चेत् , वहि न फलज्ञानस्य कर्मत्वेन प्रतीतियुक्ता, क्रियात्वेनैव फलात्मना प्रतीतिरिति न प्रत्यक्षत्वसम्भवः करणज्ञानवदात्मवद्वा । पुनः साकुल होकर प्राभाकर कहते हैं कि परिच्छित्ति न तो कर्मकारक है और न कर्ता कारक है, क्योंकि वह तो क्रिया है। क्रिया कारक थोडी ही होती है। किंतु क्रियासहित हो रहे कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान, अपादान और अधिकरण स्वरूप द्रव्यको ही कारकपना युक्तियोंसे सिद्ध है। आचार्य समझाते हैं कि यदि ऐसा कहोगे तब तो फलशानकी कर्भपनसे प्रतीति होना युक्त नहीं है । आपने जो पहिले कहा था कि फलज्ञानकी कर्मपनेसे प्रतीति होती है, उस कमनको माप कौटा लीजियेगा । आपके वर्तमान कथनके अनुसार फलस्वरूप करके अर्थज्ञप्तिकी क्रियापनसे ही सब जीवोंको प्रतीति हो रही है । ऐसी दशमि तो फलज्ञानका प्रत्यक्ष होना नहीं सम्भव है । जैसे कि आपके यहां प्रमाणज्ञानका और आस्माका कर्म न हो सकनेके कारण प्रत्यक्ष होना नहीं माना गया है, उसी प्रकार क्रिया हो जाने के कारण फलज्ञानका भी प्रत्यझ न हो सकेगा। कियासे सहित पदार्थको कर्मकारक कहते हैं। स्वयं क्रिया तो कर्मकारक कैसे भी नहीं हो सकती है । अत: क्रियाका प्रत्यक्ष न हो सकेगा। तस्यापि च परोक्षत्वे प्रत्यक्षोऽर्थो न सिद्धयति । ततो ज्ञानावसायः स्यात् कुतोऽस्यासिद्धवेदनात् ॥ २२४ ॥ करणज्ञान और आत्मा के समान यदि उस फलज्ञानका मी प्रत्यक्ष होना न मानेगे अर्थात आप फलज्ञानका भी परोक्ष होना स्वीकार करेंगे तो घट, पर आदि पदार्थों का प्रत्यक्ष होना नहीं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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