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________________ वस्वाचिन्तामणिः सिद्ध होता है और जिस ज्ञानका प्रत्यक्ष होना ही असिद्ध है, उस ज्ञानसे अपने या दूसरे ज्ञानका निर्णय भी कैसे हो सकेगा ? आप ही कहिये । जो स्वयं अंधगर्तमें पड़ा हुआ है, वह दूसरे ज्ञेय और शानोंका प्रकाशन कैसे कर सकता है ! कथमपि नहीं | फलज्ञानमात्मा वा परोक्षोऽस्तु करणज्ञानवदित्ययुक्तमर्थस्य प्रत्यक्षतानुपपत्तेः प्रत्यक्षा स्वपरिच्छिसिमधितिष्ठन्नेव ह्यर्थः प्रत्यक्षो युक्तो नान्यथा, सर्वस्य सर्वदा सर्वथार्थस्य प्रत्यक्षत्वमसंगात् । अर्थपरिच्छित्तिरूप फलज्ञान और प्रमाता आत्मा भी प्रमाणात्मक करणज्ञानके समान परोक्ष रहो । अर्थात् तीनोंका स्वसंवेदनसे या ज्ञानांतरसे प्रत्यक्ष न होओ । इस प्रकार मीमांसकों का कहना भी युक्तिशून्य है। क्योंकि ऐसा माननेपर पदार्थों का प्रत्यक्ष होना नहीं सिद्ध हो पाता है। जो रंग यं पीला नहीं है या पीला करनेकी नैमितिक शक्तिसे युक्त नहीं है, वह वस्त्रको पीला नहीं कर सकता है । अपनेको जाननेवाले ज्ञानकी प्रत्यक्षात्मक परिच्छित्ति पर आरूढ होता हुआ ही पदार्थ निश्चय कर प्रत्यक्षविषय ठीक ठीक युक्तिपूर्ण कहा जाता है । दूसरे प्रकार उपाय नहीं है अर्थात् जो अपने विषयो ज्ञानकी प्रत्यक्षरूप ज्ञप्ति होनेपर आरूद नहीं है उसका प्रत्यक्ष होना मानना अयुक्त है। यदि अपने ज्ञानकी मस्यक्षता किये बिना पदार्थों का प्रत्यक्ष हो जाना मान लिया जावे तो सब जीवोंको सम्पूर्ण कालके सभी प्रकारसे अाँका प्रत्यक्ष होने का प्रसंग आ जावेगा। भावार्थज्ञानमें प्रत्यक्षताके बिना लाये पदार्थों का प्रत्यक्ष करना माना जावे तो सम्पूर्ण जीव सर्वज्ञ बन जायेगे क्योंकि सम्यूर्ण पदार्थोकी ज्ञप्तिके अपत्यक्षरूप अंधेरै लुलभतासे सम्पूर्ण जीव बैठे हुए हैं। उनको पदार्थों का प्रत्यक्ष करना बिना परिश्रमके प्राप्त हो जावेगा । अन्य आत्माओंके ज्ञानोंका भले ही हमको प्रत्यक्ष न होय फिर भी उन ज्ञानोंसे हमें उनके देखे हुये सभी पवायोंका प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । तथात्मनः परोक्षत्वे सन्तानान्तरस्येवार्थः प्रत्यक्षो न स्यादन्यथा सर्वात्मान्तरप्रत्यक्षा सर्वस्थात्मना प्रत्यक्षोऽसौ किं न भवेत् । सर्वथा विशेषाभाचात् । उस प्रकार आत्माका प्रत्यक्ष न मानकर आत्माका परोक्ष ज्ञान होना इष्ट फरोगे तो अन्य दूसरी सन्तानात्मक आत्माओं के समान प्रकृत आत्माको भी सन्मुख पदार्थका प्रत्यक्ष न हो पावेगा। यदि अन्य प्रकारसे मानोगे यानी देवदत्तको अपनी आत्माके परोक्ष होनेपर मी पदार्थाका प्रत्यक्ष करना मानोगे तो संपूर्ण दूसरे जिनदत्त, यशवस, पशु, पाक्षियोंकी मिन्न आत्माओंके द्वारा जाने गये विषयोंका मी देवदत्तको प्रत्यक्ष हो जाना चाहिये । तथा देवदत्तसे जाने हुए अर्थका अन्य इन्द्रदत्त आदि सम्पूर्ण आत्माओंको वह प्रत्यक्ष क्यों नहीं होवेगा ! जब कि सम्पूर्ण आत्मा और उनके ज्ञान सर्वथा परोक्ष ही हैं तो ऐसी दशामें सभी प्रकारोंसे विशेष अन्तर डालनेका कोई
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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