SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 516
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तस्याचिन्तामणि ५११ प्रकार इस शंकाकारका गर्वसहित मानना है । भेद सिद्ध करनेमें हमारी ओरसे दिये गये विरुद्धधर्माध्यासरूप हेतुके प्रयोजक उत्तर गुणकी भाज्यताको बिगाड देनेका इस शंकाकारका अभिप्राय है। तन्नोपादेयसम्भूतरुपादानास्तितागतः । कटादिकार्यसंभूतेस्तदुपादानसत्त्ववत् ॥ ६९ ॥ उपादेयं हि चारित्रं पूर्वज्ञानस्य वीक्ष्यते । तद्भावभावितादृष्टेस्तद्वज्ज्ञानदृशोर्मतम् ॥ ७० ॥ वह शंकाकारका कहना ठीक नहीं हैं। क्योंकि उपादानसे बनाये गये कार्यकी उत्पत्ति हो जानेसे उपादान कारणके अस्तित्वका ज्ञान हो जाता है । जैसे कि चटाई घर आदि कार्योंके पैदा हो जानेसे उनके उपादान कारण माने गये पटेरा, पलिंगा, तृम मिट्टी मादि कारणोंका सत्व प्रतीत हो जाता है। पूर्ववर्ती ज्ञानस्वरूप उपादान. कारणका उपादेय कार्य चारित्र देखा जाता है। क्योंकि उस ज्ञानके होनेपर चारित्रका होना और ज्ञानके न होनेपर चारित्रका न होना मह अन्वय व्यतिरेक देखा जा रहा है। उसी प्रकार ज्ञान और दर्शनमें भी उपादान उपादेय माव माना गया है । भावार्य-पहिले दर्शन होगा तभी ज्ञान हो सकेगा। यहां अभेदहष्टि या निश्चय नयसे दर्शनको ज्ञानका और ज्ञानको चारित्रका उपादानकारण मान लिया है । क्योंकि चेतनस्वरूप आत्माके कोई मी गुण अन्यगुणों में प्रतिफलन होकर कार्य करते हैं। जैसे अस्तित्वगुण स्वतंत्र है । वह अपनेको तीनों कालों में स्थित रखता है | फिर भी अस्तित्वसे अभिन्न द्रव्यख, वस्तुस्व आदि गुणों में भी अस्तित्वका प्रतिफलन (छाया) है। अतः व्यत्व आदिक मी अनादि अनंत कालतक सत्रूप सित रहेंगे। ऐसे ही द्रव्यस्व गुण स्वयं प्रतिक्षण नवीन नवीन पर्यापोंको धारण करता है। किंतु द्रव्यत्वसे अमिन अस्तित्व, अगुरुलघुत्व आदि गुणोंको भी प्रतिक्षण नवीन पर्याय धारण करनी पड़ती हैं। साझेका काम ऐसा ही हुआ करता है । अतः द्रव्यदृष्टिसे ज्ञानको दर्शनका और चारित्रको ज्ञानका उपादेय ठहराया है। यदि प्रमाण दृष्टिसे विचार किया जावेगा तो दर्शन, जान, (चेतना) चारित्र इन तीन भिन्न गुणोंकी पूर्ववर्ती न्यारी न्यारी पर्याय उपादान कारण है और उत्तरकालमें होनेवाली पर्याय उपादेय हैं । हां, ज्ञानका दर्शन ( सम्यक्त्व ) गुण निमित्त कारण हो जाता है। उपादान कारण तो चेतना है और दर्शनका ज्ञान नैमित्तिक कार्य बन जाता है । जब कि द्रव्यलसे इन गुणों में उपादान उपोदय भाव है । तब पूर्वके लाम होनेपर उत्तर गुणको ही भाज्यता प्राप्त होगी। किंतु उत्तरवर्ती गुणके हो जानेपर पूर्व गुणकी सत्ता, तो विकल्पसे नहीं मानी जा सकेगी। कारण होय और उत्तरवर्ती कार्य न भी होय । किंतु मदि उत्तरवर्ती कार्य है वो पूर्ववर्ती कारण अवश्य हो चुका है।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy