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________________ : तत्त्वार्थचिन्तामणिः १५३ जिस स्थिर ज्ञानरूप प्रकृतिसे आयुष्य संस्काररूप प्रकृतिका नाश हो जाता है उस स्थिर ज्ञानरूप प्रकृतिका नाश करना भी आवश्यक है। वह किस ज्ञानसे होगा? और उस स्थिरीभूतः प्राकृतिक ज्ञान के संसर्गका भी नाश करनेके लिए आपको अन्य तीसरे आदि समाधिरूप धर्मका अवलम्ब करना पडेगा । उसमें भी पूर्वोक्त दोषोंका प्रसंग आता है। क्योंकि चौथे, पांचम, ज्ञानकी धारा... मानते हुए पूर्वके समान ही चोद्य होता चला जावेगा एवं अनवस्था होगी । अतः उन ज्ञानोंसे प्रधानके सम्बन्धका क्षय करना नहीं मान सकते हो, अथवा समाधिको प्रकृतिका धर्म मानोगे तो प्रकृति क्षयसे मोक्ष प्राप्ति हो सकेगी, उस ज्ञानरूप प्रकृतिका क्षय मी अन्यज्ञानरूप या अज्ञानरूप प्राकृतिक विचार से ही माना जायेगा तो समान चोय और वही उत्तर, पुनः चोथ और पुनः उत्तर ऐसे होते रहने से अनवस्था दोष आवेगा । क्या अपने ही आप कोई अपना नाश कर सकता है ? कभी नहीं। यदि उस स्थिरज्ञानको प्राकृतिक न मानकर आत्माका स्वरूप मानोगे तब तो आयु नामके संस्कारका क्षय पहिलेसे ही हो जाना चाहिये था। क्योंकि आत्मा अनादि कालसे नित्य है। उस आत्मासे तादात्म्य संबन्ध रखनेवाले इस स्थिरज्ञानरूप विरोधीके सदा उपस्थित रहनेपर कभी भी आयुनामको संस्कार उत्पन्न ही नहीं हो सकता है । तथा च आत्माकी सर्वदासे ही मोक्ष हो जानी चाहिये । 1 आविर्भावतिरोभावावपि नात्मस्वभावगौ । : परिणामो हि तस्य स्यात्तथा प्रकृतिवच्च तौ ॥ ६० ॥ ततः स्याद्वादिनां सिद्धं मतं नैकान्तवादिनाम् वहिरन्तश्च वस्तुनां परिणामव्यवस्थितेः ॥ ६१ ॥ सांख्यमतः उत्पाद और विनाश नहीं माने गये हैं वे सत्कार्यवादी है। कार्य अनादिसे हैं I कारणमे विद्यमान हैं । कार्य नष्ट हो जाता है इसका अर्थ है कि कारणमें यह कार्य छिप जाता कार्ये उत्पन्न हो गया इसका अभिप्राय यह है कि कारणमैसे कार्य प्रगट होगया है जो कि पहिलेसे विद्यमानं ( मौजूद ) था । अतः वे आविर्भाव और तिरोभावको ही परिणाम मानते हैं । प्रकृत में आचार्य महाराज कापिलोंके प्रति कहते हैं कि, स्थिर ज्ञान और आयु नामक संस्कार के आविर्भाव, तिरोभावको भी आप आत्मा के स्वभाव प्राप्त हुए नहीं मानते हैं । यदि वे छिपना और प्रकट होना भी आत्मा के स्वभाव हो जायेंगे तो प्रकृतिके समान आमा मी दोनों परिणाम, होना स्वीकार करना पडेगा। तिस कारण से प्रकृति और आत्माको भी परिणामी माननेपर स्याद्वादि - खोंका सिद्धान्त ही प्रसिद्ध होता है। आला या पदार्थों को सर्वथा नित्य ही एकान्त मे कहनेवाले कापिलोंका म सिद्ध नहीं हो पाता है। क्योंकि बहिरंग घट, पट, पृथ्वी, आकांश द और अन्तरंग - बुद्धि २०
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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