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तत्वार्थाचे सामणिः
अहंकार, आत्मा, मन आदि पदार्थों का परिणामीपन युक्तियोंसे निर्णीत हो जाता है । जो कि कबचित् नित्यानित्यात्मक अर्थोको माननेपर ही सिद्ध होता है ।
न स्थिरज्ञानात्मकः संप्रज्ञातो योगः संस्कारक्षयकारणमिष्यते यतस्तस्य प्रधानधर्मस्वाच्चत्श्यान्मुक्तिः स्यात् । सोपि च तत्क्षयो ज्ञानादज्ञानाद्वा समाधेरिति पर्यनुयोगस्य समानत्वाद नवस्थानमाशंक्यते, नापि पुरुषस्वरूपमात्रं समाधिर्येन तस्य नित्यत्वानित्यं मुक्तिरापाद्यते, तदाविर्भावतिरोभावादन्यथा प्रधानवत्पुंसोऽपि परिणामसिद्धेः सर्वः परिष्णामीति स्याद्वादाश्रयणं प्रसज्येत, किं तर्हि १ विशिष्टं पुरुषस्वरूपमसंप्रज्ञातयोगः संस्कारक्षयकारणम् । न च प्रतिज्ञान्याघातस्तश्वज्ञानाज्जीवन्मुक्तेरास्थानान्तकाले वस्वोपदेशघटनात्परमनिश्रेयस्य समाधिविशेषात्संस्कारक्षये प्रतिज्ञानात् ।
स्याद्वादियोंकी उक्त पांच कारिकाओके अन्तिम निकाले हुये मन्तव्यको स्वीकार करने में कपिल मसानुयायी आनाकानी करते हैं। उनका कहना है कि हम स्थिरज्ञानस्वरूप संप्रज्ञात योगको आयु नामक संस्कार क्षयका कारण नहीं मानते हैं। जिससे कि उस संप्रज्ञात योगको प्रधानका विपना हो जानेके कारण उस प्राकृतिक संप्रज्ञानके क्षय हो जानेसे मोक्ष होना माना जावे और प्रधानकी पर्यायरूप उस संप्रज्ञातयोगका क्षय भी प्रकृतिके ज्ञान अथवा अज्ञानरूप समाधिपरिणामसे क्षय होना स्वीकार करते करते इसी प्रकार चोबकी समानतासे आकांक्षायै बढनेपर अनवस्था दोषकी शंका की जावे, तथा हम उस समाधिको केवल पुरुषस्वरूप भी नहीं मानते हैं । जिससे कि पुरुषके कूटस्थ अनादि नित्य होनेसे मोक्षके नित्य होने का भी हम पर आपादन ( कटाक्ष ) किया जावे तथा हम आत्माके आविर्भाव और सिरोमानको भी नहीं मानते हैं । अन्यथा यानी यदि मानते होते तो प्रकृति के समान पुरुषके भी पर्यायोंका होना सिद्ध हो जाता " और सब पदार्थ परिणामी हैं " ऐसे स्याद्वादियोंके कपनको स्वीकार या आश्रय करने का भी प्रसंग हमारे ऊपर जब दिया जाता, तब तो तुम्हारा मत क्या है ? कुछ कहो भी, उसका उत्तर यह है कि आलाका विलक्षण स्वरूप ही असंप्रज्ञात योग है। जैसे कि जैन लोग चौदहवे गुणस्थान में होनेवाले विशिष्ट आत्मा के व्युपरत क्रियानिवृतिरूप परिणामको मोक्षका कारण मानते हैं। उसी प्रकार हम भी तेरहवें गुणस्थानके समान संप्रज्ञात योगके बाद होनेवाले असंप्रज्ञात योगको आयु नामक संस्कारके क्षयका कारण मानते हैं, ऐसा माननेपर ज्ञानसे ही मोक्ष होती है, इस हमारी प्रतिज्ञाका बात नहीं होता है क्योंकि तत्त्वज्ञान से जीवन्मुक्तिका होना हमको नितांत इष्ट है । मोक्ष दो प्रकारकी है एक अपर मोक्ष, दूसरी परमोक्ष, । प्रथम - अपर मोक्ष यह है कि सर्वज्ञ होकर थोडीसी प्रकृतिका संसर्ग रहते हुए संसार में जीवित रहना और दूसरी परममुक्त यह है कि सर्वथा प्रकृतिका संसर्ग छूट
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