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________________ १५२ सत्त्वार्थचिन्तामणिः -AAMAMI.AWA-..hdNAMunawware.... ___“ यहां चित्तका एक अर्थमें कुछ देरतक स्थिर रहनारूप समाधि नामका धर्म ही आयु संज्ञक संस्कारके पूर्ण क्षयका कारण है " ऐसा कोई सांख्य विद्वान् स्पष्टरूपसे कह रहे हैं । अन्थकार कहते हैं कि वह समाधि यदि--प्रकृति पुरुष भेदज्ञान-स्वरूप तत्त्वज्ञानसे भिन्न है, तब तो आपकी अकेले तत्वज्ञानसे मोक्ष प्राप्त होनेकी प्रतिज्ञाका व्याघात होता है क्योंकि एक तो तत्त्वोंका प्रत्यक्षज्ञान और दूसरा वही समाधिरूप विशेष चारित्र इन दोनोंको मोक्षका मार्गपन आपके कथनानुसार स्थित हो सका है। तत्त्वज्ञानादन्यत एव संप्रज्ञातयोगात्संस्कारक्षये मुक्तिसिद्धिस्तत्त्वज्ञानान्मुक्तिरिति प्रतिज्ञा हीयते, समाधिविशेष पारिनविशेष सदादिली सनिमार्गो व्यवस्थितः स्यात् । सांख्य लोगोंने दो प्रकारके योग मानें हैं । एक संप्रज्ञात, दूसरा असंप्रज्ञात । पूर्णज्ञानकालमै साधुके संप्रज्ञातयोग होता है। इच्छापूर्वक विषयोंका ज्ञान होता रहता है । तब तक आयु वर्तमान रहती है और बादमें होनेवाले निर्बीज समाधिरूप असंप्रज्ञातयोगसे आयु का भी क्षय हो जाता है उस समय मोक्ष हो जाती है । यदि सांख्य लोग तत्त्वज्ञानसे भिन्न मानी गयी संप्रज्ञात समाधिसे संस्कारका क्षय होनेपर मुक्ति की प्राप्ति मानेंगे तो ज्ञानसे ही मोक्ष होती है, यह उनकी एकान्तप्रतिज्ञा नष्ट होती है । हां, स्याद्वादियोंने व्युपरतक्रियानिवृत्ति नामके ध्यानविशेषको पूर्ण चारित्र माना है। आपको भी उस प्रकार मुक्तिका मार्ग व्यवस्थित करना पड़ा । सम्यग्दर्शन तो ज्ञानका सहमावी ही है, तथाच सभ्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्रको ही मोक्षमार्गपना निर्णीत हो सकता है। ज्ञानमेव स्थिरीभूतं समाधिरिति चेन्मतम् । तस्य प्रधानधर्मत्वे निवृत्तिस्तक्षयायदि ॥ ५७ ॥ तदा सोपे कुतो ज्ञानादुक्तदोषानुषंगतः । समाध्यन्तरतश्चेन्न तुल्यपर्यनुयोगतः ॥ ५८ ॥ तस्य पुंसः स्वरूपत्वे प्रगेव स्यात्परिक्षयः। संस्कारस्यास्य नित्यत्वान्न कदाचिदसंभवः ॥ ५९ ॥ यदि आप तत्त्वज्ञानसे समाधिको भिन्न नहीं मानकर बहुत देर तक एकसे स्थिर रहनेवाले ज्ञानको ही समाधि मानोगे तो हम पूछते हैं कि वह स्थिर हुआ ज्ञान क्या सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुणकी साम्यअवस्थारूप प्रकृतिका धर्म है ? बताओ। यदि उस प्रकृतिके विकारसे आयु नामक संस्कारका क्षय मानोगे तब तो आपके यहां मोक्ष नहीं हो सकती है। क्योंकि आपने सर्वज्ञ कही गयी प्रकृतिका संसर्ग छोडकर केवल उदासीनता, चैतन्य, भोक्तापन को ही प्राप्त कर लेना आस्माकी मोक्ष मानी है । अतः
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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