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________________ प्रस्वार्थचिन्तामणिः अभी तक बौद्धोंका ही मत चल रहा है। कारणपनेसे नहीं भी स्वीकार किये गये अर्थके अपने कालमें होनेपर चाहे किसी भी कार्यका अपने कालमें हो जाना और उस वटस कारणके न होनेपर न होना, ऐसा अन्वय और व्यतिरेक भी बन बैठेगा । तब सो चाहे कोई मी चाहे जिस किसीका कारण बन जावेगा । कोई व्यवस्था न रहेगी। इस प्रकार जैनोंकी ओरसे किया गया कटाक्ष भी नहीं माना जावेगा। क्योंकि पाप जनों के माने हुए उस दूसरे देशव्यतिरेको भी यही अव्यवस्था समानरूपसे होगी। कार्यकारणभावम भिन्नदेशकृतिका मानना तो आपको भावश्यक है ही। सब हम मी यह कह सकते हैं कि कारणपने करके नहीं माने गये पदार्यके अपने देशमै रहनेपर पर्व ही कार्योका अपने अपने देशमें उत्पन्न होना अन्वय है और अनिच्छित कारणके न होनेपर विवक्षित कार्योंका वहां न होना व्यतिरेक है। तथा च भिन्न भिन्न कालवाले कार्यकारणों में अन्वयव्यतिरेक बनाने पर हमारे ऊपर चाहे जिस तटस्थ पदार्थको कारणपना पास हो जावेगा, यह आप जैन अतिप्रसा देते हैं। उसी प्रकार भिन्न भिन्न देशवाले कार्यकारणों में मन्वय न्यतिरेक बनानेपर आपके ऊपर भी हम सौगत यह अतिप्रसंग दोष कह सकते हैं कि चाहे जिस किसी भी भिन्न देशमें पड़ा हुआ उदासीन पदार्थ जिस किसी भी कार्यका कारण बन बैठेगा । यदि आप जैन परिशेषमें यह कल्पना करेंगे कि कोई कोई ही कारण, कार्मरूप अर्थ दोनों भिन्नदेशवाले मी होकर अपनी अपनी विशेष योग्यताके बलसे अन्वय व्यतिरेक नियमके अनुसार कार्यकारणभावके नियमको धारण करते हैं, सभी भिन्न देशवालोको या चाहे जिस किसीको कारणपनेकी योग्यता नहीं है, तब तो हम बौद्धोंके यहां भी उस ही कारण भिन्न भिन्न कालवाले किन्हीं ही विवक्षित पदार्थों का अध्यय ध्यतिरेक हो जानेसे कार्यकारणभावका वह नियम क्यों न हो जावे। मिन्न कालवाले चाहे जिस किसीके साथ कार्यकारणमाव नहीं है। योग्यके ही साथ है। आपके मिन भिन्न देशवालों में कार्यकारणमाव माननेसे हमारे मिन्न कालवालोंका कार्यकारणमाव मानना सभी प्रकारोंसे एकसा है । कोई अन्तर नहीं है। तदेतदप्यविचारितरम्यम् । तन्मते योग्यताप्रतिनियमस्य विचार्यमाणस्थायोगान् । योग्यता हि कारणस्य कार्योत्पादनशक्किा, कार्यस्य च कारणजन्यत्वशक्तिस्तस्याः पतिनियमः, शातिबीजाङ्करयोश्च भिन्नकालस्वाविशेषेपि शालिपीजस्यैव शाल्यकुरजनने शक्तिर्न यवधीजस्य, तस्य यवाकरजनने न शालिबीजस्येति कथ्यते । अब आचार्य कहते हैं कि यहाँस लेकर यहां तक बौद्धोंका यह सब कहना भी विचार न करनेतक ऊपरसे सुंदर दीखता है। किंतु विचार करनेपर तो वह ढीला पोला निस्सार जचेगा। क्योंकि स्पानादियों के मतमें योग्यता पदार्थोकी परिस्थितिके अनुसार कामभूत परिणति मानी गयी है। अतः वस्तुमूत योग्यताके विशेषसे तो विवक्षित पदार्थोंमें ही कार्यकारणभाव बन जाता है। किंतु
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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