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________________ २५२ বলিটিঃ SamareeMMATHA - - पर्यायों में गवाहीरूपसे सम्पूर्ण जनोंके सन्मुख उस प्रकार अन्वयकी प्रतीति हो रही है कि यह वही मिट्टी है, जो हमने पहिले देखी थी। इस प्रकार सफल प्रवृत्तिको करनेवाला अनिसंवादी बाधारहित प्रत्यभिज्ञाप्रमाण यहां विद्यमान है । नहीं तो भट्टीका बनाया हुआ षडा चांदीका बन बैठवा और चांदीसोनेका कलश तो मट्टीका महका तैयार हो जाता । गेहूके आटेकी रोटी चनेकी नहीं बन जाती है या पहिली पिछली अवस्थाओं में अन्वय बना रहना अवश्य मानना चाहिये। सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञानं नानासन्तानभाविनाम् । भेदानामिव तत्रापीत्यदृष्टपरिकल्पनम् ॥ १५३ ॥ यहां बौद्ध कहते हैं कि जैसे कभी कभी देवदत्त, जिनदत्त, वीरदत्त आदि मिम मिश्न संतानों में सहशताके होनेसे यह वही है, ऐसा उपचारसे एकत्वको जाननेवाला प्रत्यभिज्ञान हो जाता है अथवा नाना मिट्टीके डेलों मेंसे बदलकर बने हुए घडोंमें भी यह उसी मिट्टीका घरा है। ऐसा एकपनेको विषय करनेवाला प्रत्यभिज्ञान सादृश्यको कारण मानकर हो जाता है । वैद्यजी यह वही पूर्ण है जो कि कक आपने दिया था, उसी प्रकार एक संतानमै रहनेवाली उन भिन्न पर्यायोंमें भी अधिक सहशताके गलसे द्रव्यरूपसे अन्क्य न माननेपर मी एकत्व प्रत्यभिज्ञान हो जाता है। प्रथकार कहते हैं कि उक्त प्रकारसे बौद्धोका मानना नहीं देखे हुए पवार्थकी यहाँ वहांसे गडकर केवल कल्पना करना है। यथा-नानासंवानवर्तिनां मुझेदानां सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञायमानत्वं तपैकसन्तानवर्तिनामपीति ब्रुवतामदृष्टपरिकल्पनामा प्रतिक्षणं भूयाचया तेषामस्ष्टत्वात् । जिस प्रकार विज्ञानस्वरूप भनेक देवदस, जिनदत्तरूप संतानों में वर्धनेवाले या खास आदिमें ओतप्रोत रहनेवाली मिट्टीके विशेषोंकी सदृशतासे एकत्व प्रत्यभिज्ञानकी विषयता है। उसी प्रकार एक संतानमें रहनेवाली मिन्न भिन्न ज्ञानपर्यायों में भी सघशताके कारण उपचारसे एकत्र प्रत्यभिज्ञान हो गया है ऐसे कहनेवाके बौखोंको प्रत्येक समयमें नवीन नवीन पदलसे हुए तथा नहीं देखे हुए पदार्थकी केवल कल्पना करनेका प्रसंग होगा। क्योंकि बैसे बौद्ध मान रहे हैं उस प्रकार पदार्थोका क्षणक्षणमें सर्वथा नाश होकर दूसरे सदृश अन्य पदार्थोका नवीन रीतिसे उत्पाद होना देखा नहीं जाता है। . तदेकत्वमपि न दृष्टमेवेति चेन्नैतत्सत्यम् । यदि नौद्ध यों कहें कि पूर्व उत्तरवर्ती पर्यायों में एकपना भी तो नहीं देखा गया है इस प्रकार यह उनका कहना तो सच्चा नहीं है क्योंकि यह परानुमान सुनिये ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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