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________________ सस्वार्थचिन्तामणिः अनुसार आत्माको प्रमेय कहा है । " पामशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषोत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ॥ प्रथम अध्याय सूत्र ९ ॥ नरान्तरममेयत्वमनेनास्य निवारितम् । तस्यापि स्वप्रमेयत्वेऽन्यप्रमातृत्वकल्पनात् ॥२१०॥ बाध्या केनानवस्था स्यात्स्वप्रमातृत्वकल्पने। यथोक्ताशेषदोषानुषङ्गः केन निवार्यते ॥ २११ ॥ इस उक्त कमनसे इस प्रकृत आत्माकर दूसरे आमाके द्वारा जाना गयापन भी निवारण कर दिया गया है। क्योंकि उस अन्य आत्माको भी स्वके प्रमेय करनेमें तीसरे चौथे आदि निराले निराले प्रमाता आत्माओंकी कल्पना करनी पड़ेगी, इस प्रकार अनश्स्था होना किसके द्वारा रोका जावेगा ? यदि आत्मा अपना प्रमेय स्वयं हो जाता है और आत्मा अपने जाननमै स्वयं प्रमाता बन जाता है, ऐसी कल्पना करोगे तो ठीक पहिले कहे हुए सम्पूर्ण दोषोंके प्रसङ्गको कौन रोक सकेगा ! भावार्थ-भेदवादीको वे ही दोष पुनः लागू हो जावेगे। विवक्षितात्मा आत्मान्तरस्य यदि प्रमेयस्तदास्य स्वात्मा किमप्रमेयः प्रमेयो वा ? अप्रमेयश्चेत् तात्मान्तरस्य प्रमेय इति पर्यनुयोगस्थापरिनिष्ठानादनवस्था केन बाध्यते ? प्रमेयश्चेत् स एव प्रमाता स एव प्रमेय इत्यायातमेकस्यानेकत्व विरुद्धमपि परमतसाधनं, तत् स एव प्रमाणं स्थात् साधकतमत्वोपपवेरिति पूर्वोक्तमखिलं दूषणमशक्यनिवारणम् । विवक्षामे पडा हुआ देवदत्त स्वरूप आत्मा यदि दूसरे अन्य आत्मा यज्ञदत्तसे जानने योग्य है तो बताओ, इस यज्ञदत्तको अपनी आत्मा क्या अप्रमेय है? या प्रमेय है ! यदि स्वयं अप्रमेय है अर्थात् दूसरेसे जानी जावेगी तब तो न्यारे यज्ञदत्तकी आत्माको जानने के लिये तीसरे जिनदत्तकी आत्मा प्रमाता माननी पडेगी। फिर जिनदतकी आरमा मी स्वयं अपनेको न जान सकेगी। अतः उसके जानने के लिये चौथे इंद्रदत्तकी आत्मा प्रमाता कल्पित की जावेगी। तब कहीं वह प्रमेय होगी। यों वह इंद्रदत्तकी आत्मा भी स्वयं प्रमेय न होगी। उसके लिये भी अन्य आत्माओंकी कल्पना करते करते पश्नरूप आकांक्षाएं बढती चली जावेगी । कहीं भी उक्त प्रश्नरूप विषय समाप्त न होगा। अतः अनास्था दोष होने में कौन बाधा दे सकता है! द्वितीय पक्षके अनुसार यदि देवदत्तकी आमाको स्वयं अपना प्रमेय मानोगे अर्थात दूसरे, तीसरेकी आवश्यकता न होगी तो वही आत्मा प्रमाता हुआ और वही प्रमेय हो गया । इस
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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