SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 231
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्वार्थचिन्तामणिः त्यों त्यों रोग बढसा ही गया। अंतमें वह एक सुचतुर अनुभवी वैद्यके निकट पहुंचा। वैद्यने कष्टसाध्य रोगका " काकतालीय ॥ न्यायके सदृश असम्भव नहीं किंतु अशक्य, औषषिका सेवन करना पत्र पर लिखकर रोगीको व्यवस्थापत्र दे दिया और कह दिया कि रोग दूर होना अशक्य है। मूर्ख, दरिद्र, रोगी भी हताश होकर शीघ्र मृत्युको चाहता हुआ बन की ओर चल दिया। वहां पहुंचकर देखता है कि एक नरकपालमें तत्काल की वर्षा के भरे हुए पानीको काला भुजा पी रहा है । कोढीने मृत्युका बढिया उपाय समझकर भयंकर विषरूप उस खोपडीके पानीको पी लिया, किंतु उसी समयसे वह रोगी चंगा होने लगा और कुछ दिनमै हृष्ट पुष्ट होकर उस अनुभवी वैधके पास गया और कहने लगा कि आपने मेरी चिकित्सा करनेकी उपेक्षा की थी किंतु मैं आपके सामने नीरोग, बलवान्, खडा हुआ हूं । तर वैद्यने उससे अपनी औषधिका लिखा हुआ पत्र निकलवाया । उसमें वही काले सर्पके द्वारा खोपडीमें पिये गये पानी पीनेका औषधिसेवन लिखा पाया गया तथा वर्तमानमें भी उप्रवीर्यवाली औषधियां संलिया, हरताल, अहिफेन भादिसे पनायी जाती हैं । पारा, चंद्रोदयं, मकरध्वज यदि कच्चे रह जायें तो प्राण हरण कर लेते हैं तथा परिपूर्ण सम्पन्न होनेपर अनेक सिद्धियोंके कारण बन जाते हैं । अतः मारनेकी शक्तिस्वरूप विषद्रन्यसे भी व्यभिचार नहीं है । मारनेकी अशक्ति वाले वैसे विषद्रव्य न्यारे न्यारे हैं । इस कारण कथञ्चिद्भेद सिद्ध है। हेतु रह गया साध्य भी ठहर गया, चलो अच्छा हुआ। सर्वथा भेदस्य देहचैतन्ययोरप्यसाघनत्वात्, तथा साधने सहव्यवादिना भेदप्रसक्तेभयोरपि सत्वद्रव्यत्वादयो व्यवतिष्ठेरन् । यथाहि देहस्य चैतन्यात् सत्वेन घ्यावती सत्वविरोधस्तथा चैतन्यस्यापि देहात् । एवं द्रव्यत्वादिभियावृसौ चोर्छ । हम जैनबन्धु प्रकृत अनुमानसे देह और चैतन्यमें भी किसी अपेक्षासे ही मेद सिद्ध करते है। सर्व प्रकारसे भेदको साधन नहीं करते हैं। यदि देह और चैतन्यमै उस प्रकार सर्वथा ही भेव सिद्ध करना प्रतिज्ञात किया जाय तो सत्त, द्रव्यत्व, वस्तुल और प्रमेयत्र आदिरूपसे मी भेव सिद्ध करनेका प्रसंग भावेगा । तथा च दोनों में से एक या "चालिनीन्याय " से दोनों ही असत्, अद्रव्य, अवस्तु और अज्ञेय हो जावेंगे । दोनों में भी सत्पने और द्रव्यपने आदिकी व्यवस्था न बन सकेगी । इसी बासको इस प्रकार पक्ष्यमाणरूपसे स्पष्ट करते हैं:- जैसे सद्रूप यानी विधमानपनेसे देहका चैतन्यसे भेद मानकर व्यावृत्ति मानी जावेगी तो शरीरको सत्यपनेका विरोष भावेगा । अर्थात् देह खरविषाणके सदृश असत् हो जावेगी। वैसेही चैतन्यका मी देहसे सत्वरूप करके पृथाभाव माना जावेगा वो चैतन्य वन्भ्यापुत्रके समान असत् हो जावेगा। इसी प्रकार द्रव्यपने और वस्तुपने आदिसे भी भेद माननेपर दूसरको खर्कद्वारा अद्रव्यता और भवस्तुताको चापति हो जावगी, जिस स्वरूपसे भेद माना जावेगा उस स्वरूपकी दूसरे पदार्थमै व्यावृत्ति माननी पडेगी
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy