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________________ तत्वायचिन्तामणिः १२. जाना गया तो अर्थापति और उपमान प्रमाणसे तो क्या जाना जावेगा । जिसके विना जो न हो सके, ऐसे अदृष्ट पदार्थ के जाननेको अर्थापत्ति कहते हैं। जैसे कि मोटे पुष्ट देवदत्तको देखकर दिनमै खानेकी बाधा उपस्थित होजानेपर रात्रि में भोजन करना अर्थापतिसे जान लिया जाता है तथा सदृश पदार्थके देखनेपर सादृश्यज्ञानका स्मरण करते हुए इसके सदृश वह है ऐसे ज्ञानको आपने उपमान प्रमाण माना है, जैसेकि रोझकी सदृशता गौ में है । जबकि यहां संपूर्ण जीवोंको अन्यथा न होनेवाले और सदृशता रखनेवाले पदार्थोकी सिद्धि नहीं है । ऐसी दशामें अतीन्द्रिय हेतुको जाननेके लिये अर्थापत्ति और उपमानप्रमाणकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती है । सर्वप्रमातृसम्बन्धिप्रत्यक्षादिनिवारणात् । केवलागमगम्यं च कथं मीमांसकस्य तत् ? ॥ १८ ॥ " ज्ञापकानुपलम्मन " हेतुके जानने में सम्पूर्ण प्रमाताओं के संबंधी होरहे ( सम्बन्धः षष्ठ्यर्थः ) प्रत्यक्ष, अनुमान, अर्थापति और उपमान प्रमाणोंकी प्रवृत्तिका निवारण होगया तो मीमांसकोंके यहां केवल आगमसे उस ज्ञापकानुपलम्भका जानना कैसे सिद्ध होसकेगा ! । कारण कि कार्येऽर्थे चोदनाज्ञानं प्रमाणं यस्य संमतम् ।। तस्य स्वरूपससायो तन्नैवातिप्रसंगतः ॥ १९ ॥ जिन मीमांसकों के यहां प्रेरक वेदवाक्यसे जन्य ज्ञानको कर्मकाण्डके प्रतिपादन करनेरूप अर्थमें ही प्रमाण-ठीक माना है, उन मीमांसकोंने स्वरूपकी सत्तारूप परबमके कहनेवाले वेदवाक्योंको भी प्रमाण नहीं माना है, क्योंकि " एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म " ब्रह्माद्वैतवादियोंके अतिप्रसंग दोष होजायगा । “एकही ब्रह्म है दूसरा कोई नहीं है " ऐसे वेदवाक्योंको यदि मीमांसक प्रमाण माने तो " अन्नाद्वै पुरुषः " "अन्नसे पुरुष पैदा होता है। ऐसे वेदगक्योंको भी प्रमाण मानना पडेगा। तथाच चार्वाकमतका प्रसंग हो जायगा । अतः कर्मकाण्डके प्रतिपादक वाफ्योंको ही मीमांसक प्रमाण मानते हैं । ज्ञापकानुपलम्भनके सिद्ध करनेवाले वेदवाक्योंको ये प्रमाण नहीं मानते हैं। अतः आगमसे भी ज्ञापकानुपलम्भन हेतुकी सिद्धि नहीं हुयी, जोकि उनने सर्वज्ञाभावको साधनेमें मयुक्त किया था । तज्ञापकोपलम्भस्याभावोऽभावप्रमाणतः । साध्यते चेन्न तस्यापि सर्वत्राप्यप्रवृत्तितः ॥ २०॥ यदि मीमांसक अभाव प्रमाणसे उस सर्वशके ज्ञापक प्रमाणोंके उपसम्मका अभाव सिद्ध
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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