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सत्त्वार्थचिन्तामणिः
करेंगे, वह मी ठीक नहीं है क्योंकि उस अभाव प्रमाणकी भी समी सानों (जगह) में प्रकृति नहीं होती है।
गृहीत्वा वस्तुसदा स्मृत्वा सरप्रतियोगिनम् ।
मानसं नास्तिताज्ञानं येषामक्षानपेक्षया ॥ २१ ॥ जिन माट्ट मीमांसकोंने छट्टा अभाव प्रमाणके प्रवर्द्धनकी यह योजना बतलायी है कि अमाके आधारभूत वस्तुके सद्भावको जानकर और जिसका अभाव सिद्ध किया गया है उस प्रतियोगिका स्मरण करके बहिरंग इन्द्रियोंकी नहीं अपेक्षासे केवल अंतरग मन इन्द्रियके द्वारा नास्तिपनका ज्ञान होता है। जैसे कि मूतलमें घटका अभाव जाना जाता है । इस समय मूतलका चक्षुसे या स्पर्शन इन्द्रियले प्रत्यक्ष है ही और पहिले देखे हुए घटका स्मरण है ऐसी दशाम मन इन्द्रियसे घटामावका ज्ञान हुआ है।
तेषामशेषनृज्ञाने स्मृते तज्ज्ञापके क्षणे । जायते नास्तिताज्ञानं मानसं तत्र नान्यथा ॥ २२ ॥
जैनसिद्धांत और नैयायिकोंके यहां तो अभावका ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे हो जाता है । मीमांसकोंकी उक्त सामग्री अभावके जानने अपेक्षणीव नहीं है । किन्तु मीमांसक लोग अमावके जाननेमें निषेध करने योग्य ( लायक) पदार्थका स्मरण और निषेधके आधारवस्तुका प्रत्यक्ष करना या दूसरे प्रमाणोंसे निर्णीत कर लेना आवश्यक मानते हैं । उन मीमांसकोंको सर्वज्ञ ज्ञापक प्रमाणोंके उपलम्मका नास्तित्व मन इन्द्रियसे तभी ज्ञात हो सकेगा जब कि वहां आधारभूत सम्पूर्ण मनुष्योंका ज्ञान किया जाय और उस समय ज्ञापकप्रमाणोंका स्मरण किया आय । इसके सिवाय दूसरी तरह से आप ज्ञापक प्रमाणोंकी नास्तिताका ज्ञान कैसे भी नहीं कर सकते हैं।
न वाशेषनरज्ञानं सकृत्साक्षादुपेयते । नक्रमादन्यसन्तानप्रत्यक्षत्वानभीष्टितः ॥ २३ ॥
मीमांसकोंके अभाव प्रमाणकी उत्पत्तिम अधिकरणका जानना आवश्यक है। प्रकृती सम्पूर्ण मात्माओमें ज्ञापकप्रमाणके उपलम्भका अमात्र जानना है, अतः अमावके आधारभूत सम्पूर्ण आत्मामोंका एक बार ही एक समय में प्रत्यक्ष हो जाना तो आप स्वीकार नहीं करते हैं और क्रम क्रमसे भी अन्य सम्पूर्ण आत्माओंका प्रत्यक्ष होना आपको अभीष्ट नहीं है। क्योंकि अपनी आत्माके सिवाय अन्य आत्माओंका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है । सर्वज्ञको भाप मानते हैं।