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संपादकीय वक्तव्य.
आज स्वाध्यायप्रेमियोंके करकमलो में आचार्य कुंथूसागर अंथमालाकी ओरसे यह अंथराज श्लोकवार्चिकालंकार अर्पित करनेका सुअवसर प्राप्त होता है, इसका हमें परमदर्ष है ।
जैनसंसारमे उमास्वामिविरचित तत्वार्थसूत्र आवशगोपाल प्रसिद्ध है । जैनदर्शनको सम झनेके लिए सूत्रबद्ध, सुसंबद्ध व मूलबंध के रूपमें तत्वार्थसूत्र की महिमा है । यह ग्रंथ सर्व प्रमेयोंको समझने के लिए परम सहायक है । यह कुज है। श्री परमपूज्य उमास्वामी महाराजने जनदर्शन के प्रति सर्व तत्वोंको इसमें सर्वदृष्टिसे प्रथित किया है । इस ग्रंथ का निर्माण कर आचार्यश्रीने असंख्य जिज्ञासुको तत्वों के परिज्ञान के लिए परम उपकार किया है । भगवदुमास्वामी श्वेतांबर, दिगंबर संप्रदाय में समानरूपसे मान्य है । आपके भका सर्वत्र समादर है । इस थकी महता इसी से स्पष्ट है कि उमास्वामी के अनंतर होनेशले महर्षि सुमंतभद्रस्वामीमे ९६ हजार लोक परिमित गंधहस्ति महाभाष्य नामक महान अंधकी रचना इस ग्रंथ की टीकाके रूपमें की है । यद्यपि यह मध्य दुर्भाभ्यसे उपलब्ध नहीं है । तथापि इस ग्रंथकी रचना हुई है यह अनेक उल्ले खोसे FIE 1 भगवान् समेतभद्र साधारण क्रिस्त शकके दूसरे शतमानमें बहुत बड़े विद्वान् आचार्य हुए हैं। उन्होने अपनी प्रतिभाशाली विद्वताके द्वारा सिद्धांत, दर्शन, न्याय, आचार विचार के तत्वानुशासन, स्वयंभूस्तोत्र, आप्तमीमांसा युक्त्यनुशासन, जिनस्तुतिशतक, जीत्रसिद्धि, कर्मप्रामृतटीका, रत्नकरंड श्रावकाचार जैसे अंथरत्नोंकी सृष्टि की है। इस तत्वार्थ सूत्र के ऊपर स्वामि समेतभद्रने गंधहस्ति नामक महाभाष्यकी रचना की है, यह भी प्रमाणोंसे प्रसिद्ध है ।
तदनंतर इस घरातलको अपने सुललित चारित्रके द्वारा समलंकृत करनेवाले श्रीपूज्यपाद स्वामीने इसके ऊपर सर्वार्थसिद्धी नाम टीका अंथ की रचना की है। सर्वार्थसिद्धि भी अपने शानका अपूर्वं ग्रंथ है । जैनदर्शनके सर्वांग परिज्ञानके लिए एवं तस्वार्थसूत्र के गूढ रहस्योंकी गुत्थियोंको सुलझाने के लिए इस से बड़ी सहायता मिलती है। पूज्यपाद स्वामीने भी सिद्धांत, न्याय, व्याकरण के प्रसिद्ध अनेक ग्रंथोंकी रचना की है।
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तदर्नर उद्भट विद्वत्ता से परवादियों को चकित करनेवाले निष्कलंक शानधारी तार्किक चूडामणि आचार्य अकलंक स्वामीने राजवार्तिक नामक टीका ग्रंथ की रचना इसी तत्वार्थसूत्रपर की है । अंकलंक स्वामीकी राजवार्षिक जैसे अन्य अनेक कृतियोंकी उपलब्धिसे उनकी सर्वतोपर विद्वत्ता प्रसिद्ध है । आपने इस ग्रंथपर राजवार्तिककी रचना की है ।
इस प्रकार जैनाचार्य परंपरामें रत्नत्रय कहलानेवाले समंतभद्र, पूज्यपाद और अलंक देवने इस को विस्तृत का, इसकी रहस्यमय गुत्थियों को सुलझाने में सहायता की है एवं इस मूल को ही उनकी विद्वताके विस्तार के लिए मूलभूत बनाया है। इसीसे इस अंथकी महत्ता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त इस तस्वार्थसूत्र अंथपर विभिन्न माचायोंके द्वारा लिखित निम्नलिखित