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________________ वाचिन्तामणिः ६२५ सूरदासजी कैसे सो रहे हो सपने कहा कि हम सदा ही से सोते से दीख रहे हैं। तथा च संवेदनाद्वैत- वादियों के यहां स्वप्न और अस्वप्न अवस्थायें समान हो गयीं। कोई अंतर न रहा । संतोषकार्यस्वम इति वेन स्वमस्यापि सन्तोषका रित्वदर्शनाव, कालांवरे न खम संतोषकारी इति चेत्, समानमस्व t " यदि बौद्ध यों कहेंगे कि जो आत्मामें संतोषको कर देता है, ऐसा खाना पीना, पढना आदि तत्त्व अस्वन ( जागते हुए के ) हैं । सो यह कहना तो ठीक नहीं है । क्योंकि स्वम भी संतोषको करनेवाला देखा जाता | स्वम देखते समय इष्ट प्रिय वस्तुके समागम होनेपर संतोष पैदा होना बराबर देखा जाता है । यदि फिर बोद्ध यों कहें कि स्वम कुछ देर के लिए तो संतोष कर देता है, किंतु पीछे काळांतरतक स्थित रहनेवाले संतोषको नहीं करता है। ऐसा कहनेपर हो हम जैन कहते हैं कि अझमें भी यही बात समानरूपसे देखी जाती है । अर्थात् जागते हुए भी खाना, पीना, सूचना, सुनना आदि क्रियाओंको करनेवाले पदार्थों से मोड़ी देर के लिए आनंद उत्पन्न हो जाता है । पीछे उस संतोषका नाम भी नहीं रहता है। तभी सो भोग्य और उपभोग्य पदार्थों का पुनः पुनः सेवन किया जाता है । सर्वेषां सर्वत्र सन्तोषकारी न स्वप्न इति चेत्, वागस्व मेऽपि । यदि बौद्ध यों कहें कि सर्व जीवोंको सर्व स्थानोंपर संतोष करनेवाला स्वम नहीं है। ऐसा कहने पर तो हम स्याद्वादी कहते हैं कि वैसा होना तो अस्वममें भी देखा जाता है। भावार्थ - जागते हुए मी रोगी मनुष्यको खाने पीनेंमें आनंद नहीं आता है। वृद्ध पुरुषको तहणी विष समान होजाती | समुद्रके कडुए पानी में रहनेवाली मछलीको कुएंके मीठे पानी में संतोष नहीं है । अहिफेन ( अफीम ) के कीडेको मीठी मिश्री में रख देनेसे आनन्द प्राप्त नहीं होता है । कस्यचित्कचित्कदाचित्सन्तोषहेतोरस्वत्वे तु न कश्वित्स्वमो नाम । किसी भी जीवको किसी न किसी स्थानपर किसी समय में भी जो पदार्थ संतोषका कारण है, वह अस्वल है, यदि आप बौद्ध ऐसा कहेंगे, ऐसा होनेपर तो कोई भी स्वम नहीं होसकता है। खुटा लेते हुए स्वम देखनेवाले जीवके भी थोडासा संतोषका कारण बन रहा है । अतः वह भी जागृत अवस्थाका कार्य हो जावेगा । इस कारण आप बौद्धोंके पास स्वम और अस्वमके निर्णय करने की कोई परिभाषा नहीं है । न च सन्तोषहेतुत्वेन वस्तुत्वं व्यासं कचित्कस्यचिद् द्वेषात् सन्तोषाभावेऽपि वस्तुस्वसिद्धेः । नापि वस्तुत्वेन सन्तोषहेतुत्वमवस्तुन्यपि कल्पनारूढे रागात् कस्यचित्सन्तोषदर्शनात् । तवः सुनिश्चितासम्भवाधकोऽस्वमोऽस्तु । 79
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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