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________________ ५१४ तत्वार्थाचिन्तामणिः नहीं समझा सकता है। क्योंकि उस कारणके पटरा (चौपट ) हो जानेसे वह कार्य उत्पन्न होता है । उपादान के क्षयको आपने कार्यकी उत्पत्ति माना है " कार्योपादः क्षयो हेतोः " उपादानका क्षय ही उपादेयका उत्पाद है। यदि ऐसा न मानकर आप दूसरे प्रकारसे मानोगे तो उपादेय के समय में आगे आगे होनेवाली पहिली अनेक पर्यायोंका सत्त्व मानना पडेगा । दीपककी पहिली कलिका दूसरीको और दूसरी तीसरीको उगा कर रही हैं। यदि दूसरी फोका उत्पन्न कर चुकने पर पहिली कलिकाका नाश और तीसरी कलिका के उत्पन्न हो जानेपर दूसरी लौका नाश न हो गया होता तो एक दीपककी एक समयमें दो, तीन कलिकाएं दीख जाती । इस प्रकार हजारों कलिकाओंके दीखने का प्रसंग आता है। ऐसे ही एक ही सुवर्णक्रमसे केयूर, कुण्डल, कडे बन जानेपर पहिली अवस्थाओंका सत्त्व मानना पडेगा । और तैसा होजानेपर समान कालवाले उन परिणामका कार्यकारणभाव भी कैसे होगा ? जैसे कि गौके एक समय में उत्सन्न हुए सीधे और ढेरे सींगों में परस्पर कार्यकारणभाव नहीं है, वैसे ही एक समयनै विद्यमान होर अनेक दीपकलिकाओंका या अभिकी ज्वालाओं अथवा स्थास, कोष, कुशूल, घट, मादिका उपादान उपादेय भाव कैसे बन सकता है ? कथमपि नहीं। यहां इस प्रकार इस शंकाकारकी चेष्टा हो रही है कि ज्ञानकालमै दर्शन नहीं है और चारित्रके कालमें ज्ञान, दर्शन दोनों ही नहीं हैं । फिर भाज्यपना कैसे ? बताओ । अब आचार्य महोदय समझाते हैं । सत्यं कथञ्चिदिष्टत्वात्प्राङ्नाशस्योत्तरोद्भवे । सर्वथा तु न तन्नाशः कार्योत्पत्तिविरोधतः ॥ ७२ ॥ ज्ञानोत्पत्ती हि सद्दष्टिस्तद्विशिष्टोपजायते । पूर्वाविशिष्टरूपेण नश्यतीति सुनिश्चितम् ॥ ७३ ॥ चारित्रोत्पत्तिकाले च पूर्वदृग्ज्ञानयोश्च्युतिः । चर्याविशिष्टयोर्भूतिस्तत्सकृत्त्रयसम्भवः ॥ ७४ ॥ 1 यह शंकाकारका कहना किसी अपेक्षासे ठीक है, देखो, उत्तरपर्याय उत्पन्न हो जानेपर पहिली पर्यायका कथञ्चित् नाश हो जाना इस जैनोंको अभीष्ट है। किन्तु उस पहिली पर्यामका अन्वयसहित सर्वथा नाश हो जाना नहीं बनता है। क्योंकि ऐसे तो कार्यकी उत्पत्ति होनेका ही विशेष है । भित्ति होनेपर ही चित्र ठहर सकता है । गङ्गाकी धारन टूटने से ही गंगा नदी महती है | हम कहते हैं कि ज्ञानकी उत्पति होनेपर उस ज्ञानसे विशिष्ट नवीन सम्यग्दर्शन विषय उत्पन्न हो जाता है और ज्ञानसे विशिष्ट नहीं यानी रहित अपने पहिले स्वरूपसे सम्यग्दर्शन नह हो जाता है । उत्पाद, व्यय, धौव्य तो सत्के प्राण हैं, यह बात प्रमाणोंसे श्री समन्तभद्र आदि आचार्योंने अच्छी तरह निर्णीत कर दी है। ऐसे ही चारित्र के उत्पन्न होते समय पहिले चास्त्रिरहित
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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