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________________ तत्त्वामैचिन्तामणिः क्षायिकपने हेतुकी उन सहकारी कारणोंकी नहीं अपेक्षा करना रूप साध्यके साथ उस प्रकरण व्यासि बन जाना सिद्ध नहीं है, इस व्याप्तिका व्यभिचार देखा जाता है। क्षीणकषाय नामक बारहवे गुणस्थानके आदि क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिकचारित्रको कर्मोंके क्षयसे बन्यपना होते हुए भी मुक्तिरूप कार्यी बस को तीसरे देवशज्ञानकी अपेक्षा रखनापन अच्छी तरह प्रसिद्ध हो रहा है । अतः बारहवें गुणस्थानके उन सम्यक्त्व और चारित्र करके उस सापेक्षपनेके बाधक निरपेक्षपन हेतुका व्यभिचार है । हां ! स्वांशमे निरपेक्षपनको सिद्ध करते हो तो वह सद्धेतु है । उस कारण से सिद्ध होता है कि उस तेरहवें गुणस्थान के आदिमें होनेवाले उस क्षायिक रत्नत्रय को चतुर्थ शुक्लध्यानरूप सहकारी कारणकी अपेक्षा है। इस सिद्धांत में युक्ति और आगमसे कोई मी विरोध नहीं आता है । सामग्री के पूर्ण हो जानेपर समर्थ कारणसे चौदहवें गुणस्थानके अंतमें परम मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है । ૪૮ wwwwwwwww. न च तेन विरुध्येत त्रैविध्यं मोक्षवर्त्मनः । विशिष्टकालयुक्तस्य तत्त्रयस्यैव शक्तितः ॥ ४६ ॥ कोई यों कहे कि यदि आप जैन रत्नत्रयको अन्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखता हुआ मोक्षका कारण मानेंगे, तब तो मोक्षमार्गको तीन प्रकारका मानना उस कथनसे विशेषको प्राप्त हो जावेगा। क्योंकि चौथे, पांचमें, कारण मी आपने मान लिये हैं । ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकि विशिष्ट काल और उसमें परिपक्व रूपसे होनेवाले अन्य परिणामों से युक्त होनेकी अपेक्षा रखता हुआ वह रत्नत्रय ही आत्मशक्तियों की अपेक्षासे मोक्षका मार्ग है । भावार्थमोक्षके अव्यवहित कारण माना गया उस आत्मशक्तिका विकास एक विशिष्ट कालमें ही होता है । जैसे कि माय अवस्थामै विद्यमान भी युवस्व शक्तिका प्रगट होना काल और उसमें होनेवाले शारीरिक परिणामों की अपेक्षा रखता है । क्षाकिरत्नत्रयपरिणाम झात्मैव क्षायिकरत्नत्रयं तस्य विशिष्टकालापेक्षः शक्तिविशेषः ततो नार्थान्तरं येन तत्सहितस्य दर्शनादित्रयस्य मोक्षवर्त्मनस्त्रैविष्यं विरुष्यते । J कर्मो के क्षयसे होनेवाले रत्नत्रय के परिणामोंसे परिणत होरहा उपादान कारण मला ही क्षाबिक रत्नत्रय है । कालविशेषकी अपेक्षासे उस आत्माके उत्पन्न होनेवाला और सम्पूर्ण कमको sde करनेवाला विशेष सामर्थ्य भी उस आत्मा और रत्नत्रयसे भिन्न नहीं है। जिससे कि मानी यदि भिन्न होता सब तो उस से सहित होकर सम्यग्दर्शन आदि तीनको मोक्षका मार्ग माननेपर तीन प्रकारपनका विशेष हो जाता, किन्तु अभेद माननेपर वह सामर्थ्य चौथा नहीं बन पाता है । जिससे कि कथमपि विरोधकी सम्भावना नहीं है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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