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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः गुणोंकी आवश्यकता नहीं रखते हैं। केवल कमोंके क्षयसे वे आत्मामें अनन्तकालके लिये उत्पन्न हो जाते हैं। तभी तो सिद्ध भगवान्में क्षायिकमाव सर्वदा बने रहते हैं । औदयिक और क्षायोपशमिक भाव नहीं रह पाते हैं। क्योंकि इनके बननेमें कतिपय बहिरंग सहकारी कारणोंकी अपेक्षा है और क्षायिक भावोंके उत्पन्न होने में बहिरंग पदार्थों के ध्वंसरूप अभावों की अपेक्षा तो है । किन्तु प्रधानरूपसे किसी भावात्मक गुणकी अपेक्षा नहीं है। फिर मी अतिरिक्त कार्य करने के लिये क्षायिकगुण अन्य सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखते हैं, यह बात आई । १८७. न क्षायिकत्वेऽपि रत्नत्रयस्य सहकारिविशेषापेक्षणं, “ क्षायिकमावानां नामनापि वृद्धिरिति प्रवचनेन बाध्यते, क्षायिकत्वे निरपेक्षत्ववचनात् क्षायिको हि मावः सकलस्वप्रतिबंधक्षयादाविर्भूतो नात्मला मे किश्विदपेक्षते " येन तदभावे तस्य हा निस्तत्प्रकर्षे च वृद्धिरिति । तत्प्रतिषेधपरं प्रवचनं कृत्स्नकर्मक्षयकरणे सहकारिविशेषापेक्षणं कथं बाधते १ । रत्नत्रयको अपने प्रतिबंधक कमौके क्षयसे उत्पन्न होते हुए भी मोक्षरूप कार्य को करने में विशेष सहकारी कारणों सा रहता नहीं होता है कि क्षायिक भावोंकी हानि नहीं होती है और वृद्धि भी नहीं होती है अर्थात् क्षायिकमाव उसने उतने ही रहते हैं । कमती बढती नहीं होते हैं । कोई सहकारी कारण आयेगा तो क्षायिक गुणोंके अतिशयों को कमती बदली ही करता हुआ चला आवेगा । जो अपने स्वभावोको लेता देता नहीं है, वह सहकारिओं से सहकृत ही नहीं हुआ है । इस आगमका जैन सिद्धान्त के अनुकूल ही अभिप्राय है। कमोंके क्षयसे होनेवाले मावों स्वरूपमकी अपेक्षा से अन्य कारणोंसे रहितपना कहा गया है । क्षाभिक भाव अपने सम्पूर्ण प्रतिबन्धक फर्मका कम हो जानेसे प्रगट हो जाता है । अपना स्वरूप लाभ करनेमें वह अन्य किसी सहकारी कारणकी अपेक्षा नहीं करता है। जिससे कि उस सहकारी के अमाव हो जानेपर उस गुणकी हानि हो बावे और उस अपेक्षणीयके उत्कर्ष हो जानेपर गुणकी वृद्धि हो जावे । मावार्थ -गुणका स्वरूप विगाहनेवाला प्रतिपक्षी कर्म था। उस कर्म के सर्वाजीण क्षय होजानेपर उस क्षायिकभावका पूरा शरीर व्यक्त हो जाता है । अतः गुणके आत्मलाभ करने कर्मों अतिरिक्त अन्य कोई सहकारी कारण अपेक्षणीय नहीं है। अन्यकी नहीं अपेक्षा - कर बंद उत्पाद व्यय धन्य व्यात्मक क्षायिक गुण अनन्तकालतक उत्पन्न होता हुआ बना रहता | अतः आत्मलाभ के लिये सहकारी कारणोंकी अपेक्षा के निषेध करनेमें तत्पर वह शास्त्र वाक्य विचारा अन्य विलक्षण माने गये पूर्ण कमका क्षय करना रूप मोक्षकार्यमें विशेष सहकारी कारणोंकी अपेक्षा रखनेको कैसे भाषा दे सकेगा ! अर्थात् नहीं । न च क्षायिकत्वं तत्र तदनपेक्षत्वेन व्याप्तम् क्षीणकषायदर्शनचारित्रयो। क्षायिकस्वेsपि क्युत्पादने केवलापेक्षित्वस्य सुप्रसिद्धत्वात् । ताभ्यां तद्वाषकहेतोर्व्यभिचारात् । ततोsस्ति सहकारी तद्रत्नत्रयस्यापेक्षणीयो युक्त्यागमाविरुद्धत्वात् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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