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तत्त्वार्थचिंतामणिः
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यहां असौ यह पक्ष है, घातिसंघातपातनत्य साध्य है। विद्यास्पदत्व हेतु है । ये श्री वर्धमान तीर्थकर घातिसमुदायका ध्वंस करनेवाले हैं। क्योंकि पूर्ण सम्यग्ज्ञानके आश्रय हैं। यहांपर इस द्वितीय हेसुमें प्रतिवादी व्यभिचार उठाता है; किसी स्थलमै हेतुके रहते हुए साध्य के न रहनेको व्यभिचार कहते है।
विधैकदेशास्पदेनास्मदादिनाऽनैकान्तिका, इति चेन्न ।
कतिपय पदार्थविषयक सम्यग्ज्ञानके आभय तो सम्यग्दृष्टि हम लोग भी हैं । किन्तु हमारे घातियाकर्मीका क्षय नहीं हुआ है । अतः व्यभिचार दोष हुआ ।
आचार्य कहते हैं कि यह आपका कहना तो ठीक नहीं है। क्योंकिः'सकलविद्यास्पदत्वस्य हेतुत्वाव्यभिधारानुपपत्तेः।
परमगुरूपना सिद्ध करनेवाले हेतुमें विद्याका अर्थ सफलविद्या है । अतः पूर्णज्ञान माने गये केवलज्ञानके आश्रयपनेको हेतु करनेसे व्यभिचार दोष नहीं बन सकता है । हम सदृश सामान्य जीवोंमें पूर्णज्ञान नहीं है।
प्रसिद्धं च सकलविद्यास्पदत्वं भगवतः सर्वज्ञत्वसाधनात ।
भगवान्को त्रिकाल-त्रिलोकसन्बन्धी पदार्थाका प्रत्यक्षज्ञान सावदिया है। इस कारणसे सकल वियाका आधारपना भी सिद्ध हो चुका ।
अतो नान्यः परमगुरुरेकान्ततत्त्वप्रकाशनात् । दृष्टेष्टबिरुवचनवादविद्यास्पदस्वादक्षीणकल्मषसमूहत्वाच्चेति न तस्याऽऽध्यानं युक्तम् ।
अतः केवलज्ञानी जिनेन्द्र देवसे अतिरिक्त दूसरा कोई कपिल, सुगत आदि परमगुरु नहीं हैं। क्योंकि दूसरे लोगोंने एकान्ततत्त्रका प्रकाशन किया है और उनके ग्रंथरूपी वचनोंमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे विरोध आता है। तथा वे पूर्ण ज्ञान न होनेसे अविद्या के भी स्थान हैं और कर्मसमुदाय भी उनका नष्ट नहीं हुआ है। भावार्थ-वर्धमान सामीने अनेकान्त तत्त्वका प्रकाशन किया है । इस हेतुसे उनके बचन प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणोंसे और पूर्वापर में विरुद्ध नहीं है । अविरुद्ध वचन होनेसे ही वर्धमान स्वामी विद्याके आस्पद जाने जाते हैं । केपल. ज्ञानरूपी विद्या के आश्रय होनेसे ही वे पारके क्षय करनेशले सिद्ध होते है और पापका क्षय करनेके कारण परमगुरुपना वर्धमानस्वामीम आजाता है। इन चार ज्ञायक हेतुओंसे श्री वर्धमान स्वामी तो. पुरव सिद्ध होगया, किन्तु कपिल, सुगत आदिकों गुरुपनका निषेध करने वाला