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________________ तत्त्वार्थचिंतामणिः विवेचनार्थ पूरा स्थान मिलनेपर ही संघटित होता है। इसलिये कचित् 'शृंगसाखावान् गौ: ' ऐसे लक्षणवाक्य को भी हेतुपरक बाक्योंसे लिखते हैं I " अयं गीः श्रृंगसास्नादिमत्त्वात् " यह गौ है, क्योंकि इसमें सींग और सारखा ( गलेमै लम्बा लटकता हुआ चर्म ) है । सींग साखावाली गौ होती है । इस लक्षण वाक्यसे सींग और साना होने के कारण यह गौ है, ऐसा परीक्षकोंका हेतुवादरूप वाक्य बोकर प्रतीत होता है । अतः उद्भट न्यायशास्त्री श्रीविद्यानन्दस्वामी प्रकृत अर्थको सद्धेतुओंसे सिद्ध करते हैं । १० · as परमो गुरुतीर्थंकरत्वभियोपलक्षितो वर्धमानो भगवान् घातिसंघातघातनत्वा-धस्तु न परमो गुरुः स न घातिसंघातघातनो यथास्मदादिः । 1 यहां ' तीर्थकर स्वश्रियोपलक्षितो वर्धमानो भगवान् पक्ष है । परमगुरु साध्य है । घातिसंघात हेतु है । अस्मदादि व्यतिरेक- दृष्टांत है । उन गुरुभोमें अनन्त, अनुयम प्रभाव और अचिन्त्य विभूतिका कारण तथा तीनों लोकको विजय करनेवाली ऐसी नीकरलक्ष्मीसे सम्बद्ध होकर शोभायमान हो रहे वर्धमान भगवान् तो उत्कृष्ट गुरु हैं यानी अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाले हैं । क्योंकि आत्मा के स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, सम्यश्य और चारित्रको विभावित करनेवाले चार घातिया कर्मों के क्षयकारक होनेसे, ( हेतु) । गुरुपने के लिये उक्त गुणों का पाया जाना आवश्यक है । जो परमगुरु नहीं हैं, वे घातिया कर्मीका नाश करनेवाले भी नहीं हैं। जैसे हम आदि अल्पज्ञानी। यहां वर्धमान भगवान्को उपलक्षण करके सर्वे ही अर्हत देवोंको पक्षकोटि में ले रखा है, अतः ऋषभदेव भगवान् आदिको भी परमगुरुांना साध्य है, वे अन्य दृष्टांत नहीं हो सकते हैं, और पार्श्वनाथ आदिका दृष्टांत देनेपर प्रतिवादीकी ओरसे आगमाश्रित दोष उठा देनेकी भी सम्भावना है | अतः अन्वय प्रांत न देकर व्यतिरेक व्याप्तिको दिखलाते हुए व्यतिरेक दृष्टांत दिया है। विपक्ष हेतुका न रहना ही व्यासिका प्राण है। यह बात भी ध्वनित हो जाती है । आलोक मद्यपि हेतुको द्योतन करनेवाले पञ्चमी विभक्त्यन्त - पदका प्रयोग नहीं है । घातिसंघातघातनम् ऐसा मुख्यतः प्रथमान्त किन्तु वर्धमानं का विशेषण होनेसे द्वितीया विभक्त्यन्त वाक्य है । फिर भी " स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं " इस वाक्य के सदृश प्रथमान्त भीं हेतुवाक्य बना लिये जाते हैं। जैसे "गुरवो राजमाषान भक्षणीयाः " यहां राजमाषा न भक्षणीया गुरुत्रात् यह हेतुवाच्य है । रमास नहीं खाने चाहिये, क्योंकि प्रकृतिसे मारी होते हैं । वायु दोषको पैदा करते हैं । अब वर्धमान भगवान् परमगुरुत्व सिद्ध करनेके लिये दिया गया घातिसंघातघातनत्व हेतु असिद्ध है यानी पक्षमें नहीं रहता है, ऐसी प्रतिवादीकी शंकाको दूर करते हैं:घातिसंपातघातनोऽसौ विद्यास्पदत्वात् ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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