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सत्यार्थचिन्तामणिः
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नन्वि पृथिव्यादिषु रूपादय इति प्रत्ययोऽपि न रूपादीनां पृथिव्यादिषु समवायं साधयेद्यथा खादिषु तत्र वा सयं साधयेत् पृथिव्यादिष्विवेति न कचित्प्रत्ययविशेषाकस्यचियवस्था किचित्साधर्म्यस्य सर्वत्र मावादिति चेत् ।
नैयायिक पक्षका अवधारण कर उत्तर देते हैं कि यों तो यहां पृथ्वी, जल और तेजमै रूप है, पृथ्वीमें गंध है, तेजोद्रव्य में ऊष्णस्पर्श है इत्यादिक प्रत्यय मी पृथिवी आदिकोंमें रूप आदिकोंके समवायको सिद्ध न करा सकेंगे। जैसे कि वे आकाश, काल, आदिकों में रूप आदिकोंके समवायको नहीं सिद्ध कराते हैं । अथवा वे प्रत्यय जैसे "पृथ्वी आदिकोंमें रूप आदिक हैं " इस प्रकारकी समझ करा देते हैं वैसे ही वहां आकाश, काल आदिकों में भी रूप, रस आदिका सद्भाव साध कर उनके समवायका बोध करा देवें। ऐसी पोळले तो किसी भी विशेष प्रत्ययसे कहीं भी किसी धर्म के रहने की व्यवस्था न हो सकेगी, क्योंकि किसी न किसी धर्मकी अपेक्षासे चाहे जिसमे सपना सविद्यमान है ! के पास धन है, पतक है देवदत्तका यज्ञदत्तसे मनुष्य की अपेक्षा समानधर्मसहिसपना भी है। देवदत्तसे रुपया, पुस्तक, गृह मिश्र भी है फिर देवदत्त के उन रुपया पुस्तकोंसे यज्ञदत्त धनवान् और पुस्तकान् क्यों नहीं बन जाता है ! द्रव्यपन और सत्यना तो समान धर्म सर्वत्र सुलभ है । कहीं किसीसे किसीकी धर्मव्यवस्था मानने पर आत्मा ज्ञानके समवायकी भी व्यवस्था बन जावेगी फिर यह टंटा क्यों खड़ा किया जाता है ? अब आचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहेंगे तो—
सत्यं, अयमपरोऽस्य दोषोऽस्तु पृथिव्यादीनां रूपाद्यनात्मकत्वे खादिम्यो विशिष्टतया व्यवस्थापयितुमशक्तेः ।
ठीक है अर्थात् जब तक मैं उत्तर नहीं देता हूं तब तक ठीक है । उत्तर देनेवर तो तुम्हारे कटाक्ष के जीर्ण वस्त्र के समान सैकडों टुकडे हो जायेंगे। नैयायिकोंने कहा था " कि पृथ्वी आदिको रूप आदिकोंके रहने का भी नियम न हो सकेगा " यह सर्वथा सत्य है । जो पृथ्वी आदि द्रव्योंको रूप, रस, गंध आदिकसे तादात्म्यसंबंध रखते हुए नहीं मानता है उसके मतमें यह दूसरा दोष
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भी लागू होता है। जैसे " आत्मामें ही ज्ञानका समवाय रखनेके लिये आकाश आदिकों से कोई विशेपता नहीं है वैसे ही पृथ्वी, जल, और तेजमें ही रूप हैं तथा पृथ्वीमें ही गंध है " ऐसी व्यवस्था करनेके लिये आकाश आदिकों से विशिष्टताको रखता हुआ कोई नियम भेदवादी नैयायिक नहीं कर सकते हैं । चतुर्वेदी षड्वेदी होनेके लिये चले थे किंतु द्विवेदी ही रह गये नैयायिकोंने एक दोषवारण करनेका प्रयन किया था किंतु दूसरा और भी दोष उनके गले लगा ।
स्यान्मतम् । आत्मानो ज्ञानमस्मास्थिति प्रतियन्ति आत्मस्वात् ये तु न तथा ते नात्मानो यथा खादयः आत्मानचैतेऽहंप्रत्यय प्राह्मास्तस्माचथेत्यात्मत्वमेव खादिभ्यो.