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तर चिन्तामणिः
विशेषमात्मानं साधयति पृथिवीत्वादिवत् । पृथिव्यादीनां पृथिवीत्वादियोगाद्धि पृथिव्यादयस्तद्वदात्मत्वयोगादात्मान इति । तदयुक्तम्, आत्मस्वादिजातीनामपि जातिमदनात्मकत्वे तत्समवाय नियमा सिद्धेः ।
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सम्भव है कि नैयायिकों का यह मत होवै वह भी होंने दो कि " ज्ञान हममें समवायसम्बन्धसे रहता है इस प्रकार जीवात्माएं ही समझती हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वे आत्मा हैं ( हेतू ) जो पदार्थ तो अपने में उसप्रकार ज्ञानकी वृतिताको नहीं समझते हैं वे जीवात्माएँ भी नहीं है। जैसे आकाश, काल, घट आदिक जड पदार्थ है ( व्यतिरेक दृष्टान्त ) मैं मैं इस आकार के ज्ञानद्वारा मे आत्मा ग्रहण किये जा रहे हैं ( उपनय ) तिस कारण से ज्ञान हममें रहता है। इसकी वे दृढ प्रतिपति कर लेते हैं ( निगमन ) ऐसे पांच अवयववाले अनुमानसे आत्मस्व-हेतुके द्वारा आत्माओंकी आकाश, काल आदिकों से विशेषता सिद्ध हो जाती है " जैसे कि पृथिवीश्व, जलत्व, तेजस्व, आदि जातिओं के द्वारा पृथिवी आदिक द्रव्य उन आकाश आदिकोंसे न्यारे न्यारे सिद्ध कर दिये जाते हैं। देखिये जब कि पृथिवीश्वजातिके सम्बन्धसेही पृथिवीको पृथिवीपना माना है । एवं जलत्वके भोग से जलको: जरूद्रव्य इष्ट किया है यों नियमितजातियोंके सम्बन्ध हो खानेके कारण द्रयोंमें संकरपना नहीं आ पाता है। वैसे ही आत्मत्वजातिके योगसे आत्मद्रव्य भी स्वतंत्र निराले सिद्ध हैं। यहांतक नैयायिक कह चुके । अभ अन्धकार कहते हैं कि इस सरह नैयामिकोंका वह प्रतिपान करना युक्तिशून्य है कारण कि आस्पत्र, पृथिवीत्व, जलस्व, बायुत्व भावि जातियों को भी उन जातिवाल आत्मा, पृथिवी, जल, वायु, आदिके साथ तदात्मक स्वरूप नहीं मानोगे तो रमासे सर्वथा भिन्न स्वीकार किये गये आत्मत्वक आत्माने ही समवायसम्बन्ध होवे और उस जलत्वजातिका जलद्रव्यमे ही समवाय होवे इस प्रकारके नियम नहीं बन सकेंगे, क्योंकि न्यायमतानुसार पृथिवी पृथिवीत्व, आत्मा आत्मस्व, अल जलस्त्र ये सब जाति और व्यक्तियां परस्परमे सर्वथा मिश्र मानी गयी हैं। ऐसी दशा में पृथिवीत्व जाति आत्मा जलको छोटकर पृथिवी द्रव्यमे ही चिपक जाय, उसका नियामक क्या है ! बताओ तथा आत्मत्वजाति इन पृथिवी, आकाशकी उपेक्षा कर आत्मद्रव्यमेडी समवेत हो जावे यह नियम बतानेका तुम्हारे पास क्या उपाय है ! जबतक आप भिडी पृथिवीलका और मात्मा आत्मत्वका तादाम्यरूप एकीभाव नहीं मानोगे तबतक ज्ञान और ज्ञानवान् के समान जाति और जातिमानकी अयवस्था मी न बन सकेगी।
प्रत्ययविशेषात सिद्धिरिति चेत्, स एव विचारवितुमारब्धः परस्परमत्यन्त मेदाविशेषेऽपि जातिवद्वतामात्मत्वजा विरात्मनि प्रत्ययविशेषमुपजनयति न पृथिव्यादिषु पृथिवीत्वादिजातयथ तत्रैव प्रत्ययमुत्पादयन्ति नास्मनीति कोऽय नियमहेतुः १