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________________ तत्त्वालिन्यामणिः । हैं ( प्रतिज्ञा ) क्योंकि वे सभी पुरुष है ( हेतु ) या वे सभी शरीर, इन्द्रिय आदिसे विशिष्ट हैं। ( दूसरा हेतु ) अथवा वे वक्ता हैं । ( तीसरा हेतु ) जो जो पुरुष हैं या शरीर आदिके धारी हैं तथा व्याख्याता है ये वे कोई भी सर्वज्ञको नहीं मानते हैं। जैसे कि में, (अन्वयदृष्टान्त ) इस अनुमानमें दिये गये मनुष्यत्व, शरीरित्य आदि हेतुओका अनुमानके द्वारा सर्वज्ञको जाननेवाले जैन स्याद्वादी विद्वानसे ही व्यभिचार है अर्थात् स्याद्वादी विद्वान् पुरुष हैं, शरीरधारी है और अच्छे वक्ता मी है किंतु वे सर्वज्ञको भली प्रकार जानते हैं । हेतु रह गया और साध्य नहीं रहा, अतः आप मीमांसकोंके हेतु व्यभिचारी हैं। मदन्ये पुरुषाः सर्वज्ञापकोपलम्भशून्याः पुरुषत्वात्कायादिमस्या यथाहमिति वचस्तमोविलसितमेव; इतोः स्याद्वादिनानेकान्तात् । उक्त दो वार्तिकोंका अर्थ यह है। मीमांसक यदि यह कहे कि "मेरेसे अतिरिक्त संसारके मनुष्य सर्वज्ञके ज्ञापक प्रमाणोंसे रीते हैं पुरुष होनेसे, या शरीर आदिका धारीपना होनेसे जैसे कि मैं इस अनुमानमें मीमांसकेन अन्वयदृष्टान्त बनाने के लिये अपनेसे अतिरिक्त सर्व जीवोंको पक्षकोटिमें डाला है और हमारत पाने कि बाप को मारा है। ग्योंकि अन्वयदृष्टान्त पक्षसे मित्र हुआ करता है। ये मीमांसकोंके वचन अत्यन्त गाद अन्धकारके कोरे खिलवार ही हैं। क्योंकि उन हेतुओंका स्थाबादी विद्वान्से व्यभिचार है। सस्य पथीकरणाददोष इति चेत्, न, पक्षस्य प्रत्यक्षानुमानबाघप्रसता सर्वतवादिनो हि सर्वज्ञापकमनुमानादि स्वसंवेदनप्रत्यक्ष प्रतिवादिनच सद्वचनविशेषोत्वानुमानसिद्ध सर्वपुरलाणां सफलवित्साधनानुभवनशून्यत्वं बाधते हेतुबावीतकाला स्यादिति नास:वादिनों सर्वविदो बोद्धाशे न केचिदिति वक्तुं युक्तम् । यहां मीमांसक यह कहे कि, अमितारस्थल माने गये स्याद्वादी-लोगों को भी पक्षकोटिमें कर लिया जावेगा इस कारण कोई दोष नहीं है । अर्थात् स्याद्वादियोंको मी सर्वक्षका ज्ञान नहीं है, वे झूठी दम भरते हैं ।ग्रंथकार कहते हैं कि यह कहना तो ठीक नहीं है क्योंकि तब तो आपके पक्षको प्रत्यक्ष और अनुमानप्रमागसे पाधा होनेका प्रसंग हो जावेगा । कारण कि सर्वज्ञवादीने सर्वज्ञका ज्ञान करानेवाल अनुभाब आदि प्रमाण स्वसंवेदनपत्यास मान लिये हैं और प्रतिवादीको उन पूर्वापर अविरुद्ध वचनविशेषोंसे पैदा हुए अनुमानके द्वारा सर्वज्ञके शापक प्रमाणोंका ज्ञान करा दिया जाता है । अतः स्वसंवेदन और अनुमानसे सिद्ध किये वे सर्वज्ञके ज्ञापकप्रमाण मीमांसकों के बनाये हुए उक्त अनुमानको बाधा देते हैं अतः सम्पूर्ण पुरुष सर्वसाधक अनुभवोंसे रहित हैं। इस अनुमानमें दिया गया हेतु बाधित हेत्वाभास होजाता है क्योंकि सर्वज्ञके साधक अनुमयों के सिद्ध
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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