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________________ १२० तत्त्वार्थचिन्तामणिः wimaram यथार्थ वस्तुके कहनेका संशय पैदा हो जाता है । " इस प्रकार पुरुषों के द्वारा व्याख्यान किये गये अपौरुषेय वेदके उपदेशको कारण मानकर ही सदा धर्म, परमाणु, आकाश आदिकका उपदेश होता है " यह मीमांसकोंकी बात सिद्ध नहीं हुई । जिससे कि सर्वज्ञके सिद्ध करनेवाले अनुमानमें दिये गये इस हेतुका परोपदेशकी नहीं अपेक्षा करनारूप विशेषण नाममात्रसे भी असिद्ध हो जाय । अर्थात् सूक्ष्म आदिक पदार्थोके सर्वज्ञ द्वारा दिये गये आदिकालीन उपदेशमें दूसरे छापोंके उपदेशकी अपेक्षा कैसे भी नहीं है । अतः पूर्ण हेतुका शरीर पक्षमें रह गया भला ऐसी दशा असिद्ध दोष कहां? ॥ न च परोपदेशलिंगाक्षानपेक्षावितथत्वेऽपि तत्साक्षात्कर्टपूर्वकत्वं सूक्ष्माद्यर्थोपदेशस्य प्रसिद्धस्य नोपपद्यते तथाविनामावं संदेहायोगादित्यनवधं सर्वविदो ज्ञापकं तत् । अथवा । परोपदेश, लिंग और इंद्रियोंकी अपेक्षा रखते हुए भी सूक्ष्म आदिक अर्थोक पहिलेके सत्मार्थ उपोह में इनके विशद प्रत्यय करनेवाले सर्वज्ञके द्वाराही उपदेशपूर्वक होनापन प्रसिद्ध है। उक्त हेतुकी साध्यके साथ व्याप्ति नहीं है यह नहीं समझना चाहिये, क्योंकि हेतुका इसी प्रकार साध्यके साथ अविनाभाव संबंध होना संदेह रहित सिद्ध हो चुका है । अतः अबतक सर्वजको सिद्ध करनेवाला ज्ञापक प्रमाण निर्दोष सिद्ध होगया है। __ अथवा सर्वज्ञ साधक दूसरा अनुमान यह भी है जोकि सर्वाङ्ग निर्दोष है अर्थात् हिंसाफे पोषक होनेसे वैदिक वचनोंकी अप्रमाणता सिद्ध हो चुकी है, फिर भी मीमांसकोंके हृदयमें परमाणु, पुण्य, पाप, आदिके उपदेशकी वेदद्वारा ही प्राप्ति होनेकी धुन समा रही है, वे विचारते हैं कि अनेक चिकित्साशास्त्रों में जीवोंके मांस, रक्त, चर्म, और मल मूत्रोंके, गुण, दोष, लिख पाये आते है, अभक्ष्य भक्षणका त्यागी भले ही मधु, मासके सेवन में प्रवृति न करे, एतावता वैद्यक प्रथके संपूर्ण अभि अप्रमाणता नहीं आसकती है । बात, पित, कफ, संबंधी दोषोंके निरूपण करनेमें तथा अर्श, अतीसार, अपस्मार ( मृगी) आदि रोगोंकी चिकित्सा बतलानेमें उन वैद्यकविषयक ग्रंथोंको ही प्रमाणता मानी जाती है, इसी प्रकार पशुवघकी पातको रहने दीजिये किंतु पुण्य, पाप, आकाश, स्वर्ग, और नरकके उपदेश तो वेदके द्वाराही प्राप्त होरहे हैं । अतः परमाणु, पुण्य, पाप, के उपदेश देनेवालेका लक्ष्य कर सर्वज्ञके ज्ञान कराने के लिये दिये गये आपके पूर्वोक्त अनुमानमें हमको अरुचि है। इस अस्वरसको दूर करते हुए आचार्यमहाराज मीमांसकोंके प्रति सर्वज्ञको सिद्ध करानेवाला दूसरा अनुमान कहते हैं। सूक्ष्मायॉपि वाध्यक्षः कस्यचित्सकलः स्फुटम् । श्रुतज्ञानाधिगम्यत्वान्नदीद्वीपाद्रिदेशवत् ॥ १० ॥
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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