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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः करणपना बाधित नहीं है, वैसे ही श्रद्धान करना और जाननारूप क्रिया करके स्वयं परिणति करते हुए आत्मा के सहकारी कारण बनकर प्रवर्त रहे श्रद्धान और ज्ञान इन दो विशेष गुणों को मी क्रियासिद्धिमें प्रकृष्ट उपकारकपना है, कुछ भी अंतर नहीं है । इस कारणसे निरुक्ति द्वारा व्याख्यान कर दिये गये हैं अर्थ जिन्होंके, ऐसे दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि पदोंमेंसे पहिले के दर्शन और ज्ञान ये शब्द तो व्याकरणकी रीतिसे करणमें युद्ध प्रत्यय करके साधे गये समझने चाहिये । १३४ दर्शनशुद्विशक्तिविशेषसन्निधाने तत्त्वार्थान्पश्यति श्रद्धतेऽनेनात्मेति दर्शनम्, ज्ञानशुद्विशक्तिविशेषसभिधाने जानात्यनेनेति ज्ञानमिति । मिध्यात्र कर्मके उदयसे आत्माका सम्यक्व गुण अशुद्ध ( विभावपरिणत ) हो रहा है । दर्शन मोहनीय और अनन्तानुबंधी कर्मोंके उपशम क्षय और क्षयोपशम होजानेपर वह सम्यग्दर्शन गुण शुद्ध होजाता है । तथा मिथ्यास्य कर्मके उदयकी सहचारितासे ज्ञान गुण अशुद्ध हो रहा था, सम्यग्दर्शन के प्रगट होने पर वह ज्ञानगुण भी शुद्ध होजाता है । इस प्रकार सम्यग्दर्शनरूप विशेष गुणकी शुद्धिके निकट तदात्मक परिणाम हो जाने पर आत्मा स्वयं तत्त्वार्थो को स्वतंत्रता से देखता है अर्थात् श्रद्धान करता है और सम्यग्दर्शन गुण करके श्रद्धान कर रहा है। इस प्रकार फर्ता में युद्ध प्रत्यय करने पर आत्मा स्वयं दर्शनरूप है और करण युद् प्रत्यय करने पर आत्माका सम्यक्त्व गुण ही सम्यग्दर्शन है । एवं चतुर्थ गुणस्थानसे ऊपर ज्ञानरूप विशेष गुणकी शुद्धताके निकटतम सात्मीभाव हो जानेपर ज्ञानका कर्ता आत्मा ही ज्ञान है और जिससे आला वत्यार्थीको जानता है, वह चेतनगुणकी विशेष आकाररूप ग्रहण करनेकी परिणति भी ज्ञान है, यहापर ज्ञा धातुसे कर्ता और करण युट् प्रत्यय किया है । कतमें भी कचित् कश्चित् युट् प्रत्ययका विधान है। अथवा आत्मा जिस शक्ति करके श्रद्धान करे और जाने वह दर्शन तथा ज्ञान है। इस प्रकार करगर्मे युट् प्रत्यय करके दर्शन, ज्ञान, यों शब्द बनाये गये हैं। यहांतक दर्शन, ज्ञान, शब्दोंकी निरुक्ति कर दी है । नन्वेवं स एव कर्ता स एव करणमित्यायातं तच्च विरुद्धमेवेति चेत् न, स्वपरिणामपरिणामिनोर्भेदविवक्षायां तथाभिधानात् दर्शनज्ञान परिणामो हि करणमात्मनः कर्तुः कञ्चनं वन्देर्दहन परिणामवत् कथमन्यथा मिर्दहतीन्धनं दाहपरिणामेनेत्यविभक्तकर्तृकं करणमुपपद्यते । + यहां पूर्वोक्त निर्णयपर शंका है कि इस प्रकार तो वहीं आत्मा कती और वही करण है, ऐसा अभिप्राय आया । किन्तु यों वह उक्त कथन तो विरुद्ध ही है। जो ही कर्ता है, वहीं करण नहीं हो सकता है | बढ़ई काठको कुन्हाडेसे छेदता है। यहां तक्षक कर्ता कुठार करण न्यारा है । आचार्य कहते हैं कि इस प्रकारकी शंका ठीक नहीं है। क्योंकि अपनी पर्याय और I 1
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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