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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः दूसरी वार्दिक सम्पूर्ण तत्रार्थोंके ज्ञानरूप कार्यको हेतु बनाया है और कमोंके सरूप कारणको साध्य बनाया है । उस प्रकरणका यहां उपसंहार किया जा रहा है । यहां कोई शंका करे कि आपके उक्त अनुमानमें अनुकूल तर्क नहीं है अर्थात् किसी एक अनादि ईश्वरके सम्पूर्ण तत्त्वार्थीका ज्ञान हो और सदा हो रहे श्रम न हो इसमें क्या बाधा है ? अन्धकार कहते हैं कि यह शंका तो नहीं करनी चाहिये। क्योंकि उस पापोंके क्षय होनेपर ही उस आत्माको सब पदार्थोंका जानना अन सकता है। जैसे कि वहिसाधक प्रसिद्ध अनुमानमे कोई शंका करे कि धूम हो और वह्नि न हो तो इसमें क्या आपत्ति है ? इसका उत्तर यही है कि कार्यकारणभावका भंग हो जायेगा । विना कारणके धूम नहीं हो सकता है । उसी तरह से यहां भी कायकारणभावा भंग न होना ही उक्त शंकाका बाधक है । १४० जायते तद्विधं ज्ञानं स्वेऽसति प्रतिबन्धरि । स्पष्टस्वार्थावभासित्वान्निर्दोषनयनादिवत् ॥ ३९ ॥ सम्पूर्ण पदार्थोंको हस्तामलकवत् युगपत् जाननेवाला वैसा ज्ञान ( पक्ष ) अपने विन कर रहे ज्ञानावरण आदि प्रतिपक्षियोंके नष्ट हो जानेपर ही पैदा होता है ( साध्यदल ) क्योंकि वह स्पष्ट पाण्डु, रूपसे सम्पूर्ण अपने विषयोंको प्रकाश कर रहा है ( हेतु ) जैसे कि चाकचक्य, कामल आदि दोषोंसे सहित चक्षु आदि इन्द्रियां अपने विषयोंका स्पष्ट प्रकाश करती हैं । (अन्वय दृष्टान्तं ) इस अनुमान द्वारा सर्वज्ञके ज्ञानका आवरण करनेवाले फर्मोंका विनाश सिद्ध किया है । सर्वज्ञविज्ञानस्य स्वं प्रतिबन्धकं कल्मषं तस्मिन्नसत्येव तद्भवति स्पष्टस्वविषयावभा सित्वात् निर्दोषचक्षुरादिवदित्यत्र नासिद्धं साधनं प्रमाणसद्भावात् । पूर्व सर्वज्ञ विज्ञानका स्वाभाविकशक्तिसे बिगाडने वाला अपना पापकर्म था, उस पापके ध्वंस होनेपर ही सबको जाननेवाला वह विशद ज्ञान पैदा होता है क्योंकि वह स्पष्टरूपसे अपने विषयोंका प्रकाशक है । जो स्पष्टरूपसे अपने विषयोंके प्रकाशक होते हैं वह अपने प्रतिबन्धकोंके नष्ट होनेपर ही उत्पन्न होते हैं । जैसे कि काच कामक आदि दोषोंसे रहित चक्षु आदिक इन्द्रियां या उन इंद्रियोंसे पैदा हुए घट, पटके प्रत्यक्ष ज्ञान। यों इस अनुमानमें हेतु असिद्ध नहीं है । क्योंकि पक्ष हेतुका रहना सिद्ध करनेवाले अनुमान और आगमप्रमाण विद्यमान हैं । 1 - नन्वामूलं कल्मषस्य क्षये किं प्रमाणमिति चेदिमे श्रमहे किसीकी यहां शंका है कि हम लोगोंके ज्ञानावरण आदि कर्म कुछ नष्ट भी हो जाते हैं और अनेक कर्म आत्मामें विद्यमान रहते हैं किन्तु आपने सर्वज्ञके ज्ञानावरण आदि कमका सम्पूर्णरूपसे
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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