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तस्वार्थपिन्सामणिः
ठीक नहीं है। क्योंकि उन शंख, सीपों आदिका प्रधानकारण बलको मानना सिद्ध नहीं है। शंख आदिकोंका प्रकृष्ट कारण अपने बनानेवाले पुद्गलकी वर्गणास्वरूप पर्याये हैं अर्थात् शंख आदिक द्वीनिद्रय जीवोंके योगोंसे आकर्षित हुयीं आहार वर्गणाओंसे शंखका पौगलिक शरीर बना है। जल, कीच, शैवाल आदि तो उसके केवल सहकारी कारण हैं। उनमें शंखशरीरके योग्य आहास्वर्गणायें अधिक हैं। किसी मी कार्यके सम्पूर्ण ही कारणोंको या चाहे किसी सामन्यकारणको निदान मान लेना किसी भी वादीने इष्ट नहीं किया है। अनेक कारणोंमसे किसी विशेष उपयोगी नियत कारणको ही निदानरूपकारण माना गया है और ऐसे प्रधान कारणके नष्ट हो जानेपर किसी भी निदानसे होनेवाले कार्यका नाश न होवे यह नहीं है । इस कारण हमारा हेतु व्यभिचार दोपसे रहित ही है, वह संसारख्याधिक नाशकपनको क्यों नहीं सिद्ध करावेगा जिससे कि उस व्याधिके नाम कर. नेसे कोई न कोई ज्ञानोपयोगस्वरूप आत्मा भविष्यमै कल्याणसे युक्त न हो सके । मावार्थनिदानक्षयरूप निदोषहेतृसे मिथ्यादर्शन आदि न्याधियों का ध्वंस सिद्ध होता है और व्याधियों के ध्वंसकपने हेतुसे किसी आत्माका मोक्षमार्गमे लग जाना ज्ञात हो जाता है।
निरन्वयविनश्वरं चिचं श्रेयसा सोक्ष्यमाणमिति न मन्तव्यम् , तस्य क्षणिकत्वाविरोधात् । ___ प्रत्येक क्षणमें अन्वयसहित नष्ट होकर नहीं ध्रुवपनको रखता हुआ क्षणिकचित्त मोक्षमार्गसे युक्त हो जावेगा । इस प्रकार पौद्धोंको नहीं मानना चाहिये, क्योंकि जो कल्याणसे युक्त होनेवाला है उसको क्षणिकपनेका विरोष है। अर्थात् बिजली चमकनेके समान किसीको क्षणमात्र तो हितमार्ग प्राप्त नहीं होता है किंतु पहिलेसे ही नाना प्रयत्न करने पड़ते हैं। तब कहीं नही देर में सुघरते सुधरते आत्माके अनेक परिणामों के बाद कल्याणमार्ग मिलता है। बौद्धोंके माने हुए सर्वथा शाणिक विज्ञानरूप आमाकी कल्याणमार्गमें नियुक्ति नहीं बन सकती है।
संसारनिदानरहिताञ्चिचाञ्चित्तान्तरस्य श्रेयास्वभावस्योत्पधमानतैव श्रेयसा योक्ष्यमाणता, सा न क्षणिकत्वविरुद्धति चेन, क्षणिकैकान्वे कुतश्चित्कस्यचिदुत्पत्ययोगात् ।
बौद्ध कहते हैं कि सातिशय मिथ्यादृष्टिके जैसे चरम मिथ्यादर्शनके उत्तरक्षणमें सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है, बारहवें गुणवानकी अन्तिम अल्पज्ञतासे तेरहवेंके आदिमें सर्वशता उत्पन्न हो जाती है, जैनोंके यहां चौदह गुणस्थानके अन्ठसमयकी असिद्धतासे दूसरे क्षणमें आलाको सिद्ध भवस्या पन जाती है. वैसे ही संसारके आदिकारण मानी गयी अविद्या और तृष्णासे रहित हो गये पहिले चित्तसे कल्याणस्वभाववाले दूसरे चित्तका उत्पन्न हो जाना ही कल्याणमार्गके साथ भावी नियुक्तपना है । वह नियुक्ति हमारे माने हुए क्षणिकपनेसे विरुद्ध नहीं पड़ती है। प्राचार्य कहते हैं कि इस प्रकार बौद्रों का कहना ठीक नहीं है। क्योंकि सर्वथा क्षणिकस्वपक्षका एकान्त