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________________ तत्वार्थचिन्तामणिः ४०१ जिज्ञासा नहीं है। आचार्य कहते हैं कि यदि ऐसा पूर्वपक्ष करोगे तो आपका यह कहना ठीक है वास्तव में शिष्यकी मोक्षमार्ग विशेष ही जानने की इच्छा उत्पन्न हुयी हैं । अन्यथा यदि ऐसा होता तो सूत्रकार उमास्वामी महाराजका उस रत्नत्रयको विशेष रूपसे मोक्षमार्गका प्रतिपादन करन भला कैसे प्रकृष्ट युक्तियों से सहित माना जाता! बताओ। यदि कोई शिष्य सामान्यरूपसे मोक्षमार्ग विवाद करता पाया जाता है और उस केवल सामान्य मोक्षमार्गको जाननेकी अभिलाषा रखता है ।. ऐसी दशामें तो सूत्रकारको ( कोई न कोई ) मोक्षका मार्ग जगत्में है । इसी प्रकार कहना उचित था। क्योंकि शिष्य के जानने की इच्छा के अनुसार ही सूत्रकार के उत्तर वचन हुआ करते हैं। फिर जो सूत्रकारने मोक्षमार्गका विशेष रूप से निरूपण किया है इससे ध्वनित होता है कि मार्ग सामान्य में कोई विवाद नहीं है। मोक्षमार्गेमें हुये विशेष विवादों की निवृत्तिके लिये ही प्रथमसूत्र कहा है । तर्हि मोक्षविशेषे विप्रतिपत्तेस्तमेव कस्मान्नाप्रासीत् इति चेत् किमेवं प्रतिपित्सेत विनेयः सर्वत्रेकार्थस्य सम्भवात् । तत्प्रश्नेऽपि हि शक्येत चोदयितुं किमर्थं मोक्षविशेषमप्राचीन पुनस्तन्मार्गविशेषम्, विप्रतिपत्तेरविशेषादिति । पुनः शंकाकार कहता है कि तब तो मोक्षमार्ग के विशेष अंशके समान मोक्ष के विशेष स्वरूप में भी नाना प्रवादियों का विवाद हो रहा है। इस कारण उस शिष्यने मोक्षके विशेष स्वरूपको ही सूत्रकार से क्यों नहीं पूंछा ? बताओ । ऐसा कहने पर तो हम जैन कहते हैं कि वह 'उमास्वामी महाराजले प्रश्न करनेवाला शिष्य इस प्रकार मोक्षविशेषके जानने की ही इच्छा क्यों करता है ? इस प्रकार के कुचोद्य कार्य करना सभी स्थलोंपर सम्भव हैं । देवदत्त मिष्टपदार्थ दी क्यों खाना चाहती है ? लवण व्यञ्जनों को क्यों नहीं खाता है ? | जिनदत्त न्यायसिद्धांत को ही क्यों पढना चाहता है ? ज्योतिष, वैद्यक ग्रंथोंको क्यों नहीं पढता है ! | पगडीका अभिलाषी टोपी क्यों नहीं लगाता है ! आदि अनेक स्थलों में अपनी अपनी इच्छाके अनुसार कार्य होते देखे जा रहे हैं। यदि आपके कथनानुसार शिष्य उस मोक्षविशेषका भी प्रश्न कर देता, तब भी आप बलात्कार से यह कटाक्ष कर सकते थे कि शिष्यने मोक्षविशेषको किस लिये पूंछा, किंतु फिर उस मोक्षके मार्गवि शेषको क्यों नहीं पूंछा ? क्योंकि मोक्षविशेष और मोक्षके मार्गविशेषमें विवाद होना एकसा है । कोई मी अंतर नहीं है, प्रत्युत मोक्षमार्ग पूर्ववर्ती है । यों अनेक कुत्सित कटाक्ष किये जा सकते हैं जो कि शिष्टोंका मार्ग नहीं है । ततः कस्यचित्क्कचित् प्रतिपित्सा मिच्छता मोक्षमार्गविशेषप्रतिपित्ता न प्रतिक्षेतण्या ! इस कारण अबतक निर्णीत हुआ कि किसी भी जीवकी किसी भी विषयमें आनने की इच्छा हो जाती है । इस सिद्धांतको यदि आप चाहते है तो शिष्यकी मोक्षमार्ग विशेष के समझने की इच्छाका खण्डन नहीं कर सकते हैं। 51
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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