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तत्वार्थचिन्तामणिः ।
उत्तर क्षणमें रहनेवाला कार्य होता है । इस नियमको प्रायः सर्व ही दार्शनिक मानते हैं । यदि आप जैन यो कहै कि सम्यग्दर्शनके प्रगट होनेके समय ही सम्यग्ज्ञान प्रगट होजाता है । इस कारण वह सम्यग्दर्शन उस ज्ञानका कारण है, यह कहना मी असंगत है। क्योंकि समान फालबालोंका ही कार्यकारणभाव होने लगा तब तो सम्याज्ञान भी सम्यग्दर्शनका कारण बन सकेगा । इस प्रसंगको आप दूर नहीं कर सकते हैं । क्योंकि मतिज्ञान, श्रुतज्ञान आदिके प्रगट होते समय ही तत्त्वार्थोंका श्रद्धान करना स्वरूप, सम्यग्दर्शन प्रगट होगया है। इस कारणसे दर्शनको ज्ञानसे पूज्यपना सिद्ध नहीं हुआ । दर्शनकी पूज्यतामें दिया गया ज्ञानकी समीचीनताका कारणपन हेतु अच्छे प्रकारसे सिद्ध नहीं हो सका है । उसके स्पष्टीय अर्थकी व्यवस्था नहीं होसकी है। इस प्रकार कोई एक आक्षेपक कह रहा है । आचार्य कहते हैं कि उसका वह कहना प्रशस्त नहीं है। क्योंकि आक्षेपकने हमारे कहे हुए. अभिपायको समझा नहीं है। हम सम्यग्दर्शनको सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण हो जानेसे पूज्यपना नहीं कहते हैं। तब तो इम क्या कहते हैं ! उसे पुनः सुनिये । हम यह मानते हैं कि पूर्वसे विद्यमान होरहे ज्ञानको समीचीनपनके व्यवहार कराने सम्बन्दर्शन कारण है। आत्मामै चेतनागुण स्वतंत्र है और दूसरा सम्यादर्शन गुण मिन्न है। अनादिकालसे बद्ध पुद्गल द्रव्यको निमित्त पाकर गुणोंके अनेक प्रकारसे विपरिणाम होरहे हैं। चेतनागुणका कुमति आदि ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे मिथ्यावानरूप परिणमन चला आरहा है। और सम्यक्सगुणकी दर्शनमोहनीयके उदयसे मिभ्यादर्शनरूप परिणति होती आरही है। जिस समय करणलब्धि होनेपर दर्शन मोहनीयका उपशम होजानेसे आत्माम सम्पग्दर्शनका स्वाभाविक परिणाम उत्पन्न होता है, उसी समयका ज्ञानपरिणाम भी समीचीन व्यवहृत हो जाता है । जैसे शुद्ध मधे हुए लेटे भरा हुआ कूप-जल शुद्ध है और अशुद्ध वर्तनमें रखा हुआ कूप-जल अशुद्ध है। एवं. मिस्याहष्टि जीवके सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिके प्रथम होनेवाले अर्थोके विशेष ग्रहणरूप ज्ञानको मिथ्यादर्शनके साथ रहने के कारण जैसे मिख्याज्ञानपनेका व्यवहार किया जाता है, वैसे ही दर्शन मोहनी.. यके उपशम या क्षयोपशम आदिसे सम्यग्दर्शनके प्रगट हो बानेपर सम्यग्जानपनेका व्यवहार हो जाता है । भावार्थ--वास्तवमें देखा जाये तो मिय्यालके उदय होनेपर सम्यग्दर्शन गुणमे मिय्या स्वादुरूप जैसे मिथ्यापन है, वैसा ज्ञानमें विपरीत स्वादुरूप मिथ्यापन नहीं है। केवल दूसरे विमावमावके संसर्गसे मिथ्यापन कह दिया जाता है। वैसे तो इंद्रियोंके काच कामल आदि दोषोंसे ज्ञानमें मिथ्यापन व्यक्त रूपसे सातवे गुणस्थान तक और अव्यक्त रूपसे बारहवे गुणवान तक रहता है। पूज्य मुनिमहाराज भी पित्तदोषवश शुक्लको पीला देखते हैं। किंतु वह ज्ञान उनका सम्यग्ज्ञान ही है, और ग्यारह अंगोंका पाठी मिथ्यादृष्टि घटमें घटज्ञान कर रहा है । तब मी वह मिथ्याज्ञान ही है। स्नेहवसला माताके पुत्रपर थप्पड मारने की अपेक्षा ईर्ष्यालु सपत्नीका खिलाना कहीं चुरा है। ज्ञान . वह प्रकाशमान पदार्थ है। जिसमें केवल दूसरी उपाधियों के गश कुरिससफ्ना कर दिया जाता है और.