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________________ तवाचिन्तामणिः ७५९ चारित्र तथा सम्यक्स्व गुणमें विपरीत रस करा देनेवाली कडवी तुम्बीमें घरे हुये दूधके स्वाद बदल जाने के समान मुख्यरूपसे मिथ्या मोहनपना है । नन्वेवं सम्यग्ज्ञानस्य दर्शनसम्यक्त्व हेतुस्वाद म्यर्होस्तु मिथ्याज्ञानसहचरितस्यार्थश्रद्वानस्य मिथ्यादर्शनव्यपदेशात् मत्यादिज्ञानावरणश्चयोपशमान्मत्यादिज्ञानोत्पत्तौ तस्य सम्यग्दर्शन व्यपदेशात् । न हि दर्शनं ज्ञानस्य सम्यग्व्यपदेशनिमित्तं न पुनर्ज्ञानं दर्शनस्य सहचारित्वाविशेषादिति चेत् न । ज्ञानविशेषापेक्षया दर्शनस्य ज्ञानसम्यक्त्वव्यपदेशहेतुत्वसिद्धेः । सकलश्रुतज्ञानं हि केवलमन:पर्ययज्ञानघत् प्रागुद्भूतसम्यग्दर्शनस्यैवाविर्भवति न. मत्यादिज्ञान सामान्यवद्दर्शनसहचारीति सिद्धं ज्ञानसम्यक्त्वद्देतुत्वं दर्शनस्य ज्ञानादम्यईसाधनम् । ततो दर्शनस्य पूर्व प्रयोगः । आक्षेपककी यहां पुनः शंका है कि इस प्रकार समानकालवर्ती पदार्थों में भी व्यवहार कराने armer यदि कार्यकारणभाव मान लिया जावे सो दर्शनके समीचीनपनेका कारण हो जानेसे सभ्यज्ञानको भी अच्छा पूज्यपना हो जाओ। क्योंकि पहिले मिथ्याज्ञानके साथ रहनेवाले अर्थश्रद्धानको मिथ्यादर्शनपने का व्यवहार था और जब मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानको आवरण करनेवाले कमोंके क्षयोपशमसे आत्मामें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान उत्पन्न हो जाते हैं, तब उस अर्थको श्रद्धान सम्बन्दर्शनपनेका व्यवहार हो जाता है। यहां जैनोंका यह पक्षपात नहीं चल सकेगा कि ज्ञानकी समीचीनसा व्यवहारका कारण सम्यग्दर्शनको तो मान लिया जावे, किंतु फिर सम्यग्दर्शन की समीचीनता का कारण सम्यग्ज्ञान न माना जावे । जबकि दोनों में ही सहचारीपन अंतररहित है । मावार्थ- दर्शकी समीचीनताका कारण दीख रहा ज्ञान भी पूज्य हो सकता है। यदि टेसूके फूलके सन्निधानसे कांच का हो जाता है तो साथमें कांचकी निकटताले टेसूका फूल मी लावण्ययुक्त हो जाता है J अतः दोनों में औपाधिक भाव हैं। प्रथकार कहते हैं कि इस प्रकार शंका करना ठीक नहीं है 1 क्योंकि विशेषज्ञानोंकी अपेक्षासे सम्यग्दर्शनको ज्ञानकी समीचीनता के व्यवहारका कारणपना सिद्ध है, जैसे कि सम्यग्दर्शन के साथ सामान्य मति ज्ञान या सामान्य श्रुतज्ञान अवश्य रहता है । किंतु किसी विशेषसम्यग्दर्शन के पूर्व में सम्यग्ज्ञान अवश्य होना ही चाहिये, यह व्याप्ति भी नहीं है । प्रत्युत यह देखा जाता है कि परिपूर्ण द्वादशाङ्ग श्रुतज्ञान उसी जीवके उत्पन्न होगा जिसको कि पूर्व सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो चुका है। जैसे कि केवलज्ञान और मन:पर्ययज्ञान पूर्वके सम्यग्दृष्टि जीवके ही उत्पन्न होते हैं। अतः पूर्ण श्रुतज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, परमादधि, सर्वावधि और केवलज्ञान इन विशेष raint अपेक्षा सम्यग्दर्शन ही ज्ञानका कारण सिद्ध होता है । सामान्य मविज्ञान और श्रुतज्ञान आदिके साथ म ही सम्यग्दर्शन का सहचारीपन हो; किंतु पूर्ण श्रुतज्ञान आदिके पूर्व कालमें सभ्यग्दर्शन ही रहता है। इस कारण सिद्ध हुआ कि ज्ञानोंकी समीचीनताका कारण सम्यग्दर्शन ही है ।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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