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________________ सातापितामविक अबतक सम्यग्दर्शनको ज्ञानसे पूज्यपना सिद्ध हो चुका, उस कारण दर्शनका ज्ञान शब्दसे प्रथम मादि सूत्रमै मयोग किया गया है । ____कश्चिदाह-शानमम्यर्हितं तस्य प्रकर्षपर्यन्तप्राप्तौ भवान्तरामावाद, नतु दर्शनं । वस्य थापिकस्यापि नियमेन भवान्तराभावहेतुत्वामावादिति । सोऽपि चारित्रस्याम्पातिवं प्रवीतु तत्पकर्षपर्यन्तमाप्तौ भवान्तराभावसिदे। कोई फिर यहाँ कटाक्ष करता है कि दर्शनसे ज्ञान ही पूज्य है। क्योंकि शानके अस्वपिक प्रकर्षता पर्यन्त माप्त हो जानेपर अर्थात् केवलज्ञान हो जानेपर इस बीवकी उसी भवसे मोक्ष हो. जाती है। दूसरा भव धारण नहीं करना पडता है। किन्तु सम्बग्दर्शनकी प्रकर्ष सीमातक पहुंचने पर मी यानी क्षायिक सम्यग्दर्शनके उत्पन्न हो जानेपर भी नियमसे दूसरे जन्मोंको पारण न करनेकी हेतुताका अभाव है । कोई झायिकसम्बन्दष्टि जीव भहें ही उस जन्मसे मोक्ष प्राप्त करलेवे, किन्तु अन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि श्रेणिक राजाके समान तीसरे भवमे मुक्तिको प्राप्त करेंगे। अथवा मनुष्यायु या तिर्यगायु को पांधकर जिन मनुष्योंने केवली या श्रुतकेनलीके निकट क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्त कर लिया है, वे भोगभूमिके सुख भोगकर देव होनेके बाद कर्मभूमिमें मनुष्य होकर मुक्ति काम करेंगे। हां, चौथे भवमें मुक्तिको अवश्य प्राप्त कर लेवेगे। किन्तु पूर्ण प्रत्यक्षज्ञानी तो ससी जन्मसे सिद्ध परमष्ठी बन जाते हैं। अतः दर्शनसे जान पूज्य रखा | आचार्य कहते हैं कि ऐसा कटाक्ष करनेवाला वह शंकाकार मी चारित्रको पूज्यपना कहे तो और भी अच्छा है। क्योंकि उस चारित्रकी पूर्णता होनेपर तत्क्षणमें ही मोक्ष हो जाती है। दूसरे भवोका धारण करना तो क्या, वर्तमान मवका धारण करना मी शीन नष्ट हो जाता है, यह बात सिद्ध है। भतः किसीकी प्रकर सीमासे पूज्यपनेकी व्यवस्था करनेवाला हेतु व्यभिचारी हो गया । अतः आदिके शानको समीचीनता . देनेवाला दर्शन ही पूज्य है । कर्मभूमिके आदिमें लौकिक और धार्मिक व्यवस्थाको अक्षुण्ण बतानेवाले . भगवान ऋषभदेवका पूज्यपना जगत्पसिद्ध है । उपज्ञ शानका कारण अभ्याईत होना ही चाहिये। केवलवानस्थानतत्वाचारित्रादभ्यहाँ न तु चारित्रस्य मुक्ती तथा व्यपदिश्यमानस्थामावादिति चेत्, व्रत एव धाषिकदर्शनस्याम्यहाँस्तु मुक्तावपि सद्भावाद अनंतत्वसिदे। चारित्रकी अपेक्षासे केवलज्ञानको ही पूज्यपना है। क्योंकि केबसज्ञान अनंतकाल तक खिप्त रहता है। किंतु चारित्र पूज्य नहीं है, कारण कि मुक्ति चारित्रगुणकी विधमानताका कथन नहीं किया है। केवलज्ञान, क्षायिक सम्यक्त्व, केवलदर्शन, जीवस्व और सिद्धव इन भावोंका ही निरूपण मोक्ष अवस्थाम किया है। सिद्धोंके आठ गुणोंम भी चारित्रका नाम नहीं है। सिद्धगति १ फेवलज्ञान २ केवलदर्शन ३ क्षायिकसम्यक्त्व १ मनाहार ५ ये पाच मार्गणार्य सिद्धो मानी गई है। यहाँ मी चारित्रका कपन नहीं आया है। प्रधकार कहते है कि यदि ऐसा कहोगे सो हम कहते हैं
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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