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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः ૨૭૨ किसी उद्यान या महलके प्रतिबिम्बित या चित्रित अनेक रंगवाले चित्रपटको देखने पर उस चित्रज्ञानके पीत, नील आदिक आकार भिन्न भिन्नदेश में वृद्धि रखनेवाले नहीं है यह नहीं कहना | अन्यथा उस चित्रपट ( तसवीर ) से बाहिर रखे हुए वास्तविक प्रतिविम्बक बगीचे या महलके उन नील, पीत आदिक आकारोंका भिन्नदेशवृतिरूपमें प्रतिष्ठित रहनेका विरोध हो जायेगा | अर्थात् वे एक ही ज्ञानमें भिन्न भिन्नदेशों में रहते हुए दीख रहे हैं क्योंकि बगीचे में अनेक आकार या रंगवाले फल, फूल, वृक्ष, बेल आदि भिन्न भिन्न देशों में विद्यमान हैं। तभी तो उनका प्रतिबिम्म चित्रमें वैसा पड गया है । न भिन्नदेशी वाद्याकारानुकारिणश्चित्रवेदनाद्भिन्नदेशपीताद्याकारो बहिरर्थश्वित्रः प्रत्येतुं शक्योऽपीताकारादपि ज्ञानात्पततीतिप्रसंगात् । एक ही देशमें पीठ, नील आदिक आकारका निरूपण करनेवाले चित्रज्ञान से भिन्न देशafia आदि आकारवाले बहिरंग इन्द्रधनुष, चितकबरी गाय, ततैया, तितली आदि थे चित्र विचित्र नहीं समझे जा सकते हैं, अन्यथा पीतका आकार न लेनेवाले ज्ञान से भी पीतकी समीचीन ज्ञप्ति होजानेका अतिप्रसंग आजायेगा । भावार्थ – ज्ञानके आकारों में भिन्नदेशता है तभी तो बहिरंग विषयोंमें भिन्नेदशपना निर्णय किया जाता है । इस कारण ज्ञानके आकारों में भिन्न भिन्न देशों में रहनापन सिद्ध हुआ । ऐसी दशा में आत्मा के समान ज्ञानके आकारों भी पृथकू न कर सकनापन नहीं है। अब आप बौद्ध एक चित्रज्ञानका क्या उपाय रचेंगे ! बताओ। पीताकारादिसंवित्तिः प्रत्येकं चित्रवेदना । न वेदनेकसन्तानपीतादिज्ञानवन्मतम् ॥ १६४ ॥ देवदत्त, जिनदत्त आदिकी अनेक भिन्न सन्तानों में होनेवाले और नील, पीत, हरित आदिकको जाननेवाले एक एक ज्ञानव्यक्ति जैसे चित्रज्ञान नहीं है उसी प्रकार एक ज्ञानमें होनेवाले नीक, पीत आदि आकार भी अकेले अकेले चित्रज्ञान नहीं है किन्तु एक ज्ञानके समुदित आका - का चित्र बन जाता है यदि बौद्धों का यह मंतव्य है तब तो - - चित्रपटदर्शने प्रत्येकं पीताकारादिवेदनं न चित्रज्ञानं क्रमाद्भिन्नदेशविषयस्मात्तार शाने संतानपीवादिज्ञानवदिति मतं यदि । उक्त कथनको बौद्ध अनुमान बना कर कहते हैं कि अनेक रंगवाले चित्रको देखने पर पीत, हरित, नील आदिक आकारको जाननेवाले अनेक आकारके ज्ञानमेंसे एक आकारवाला प्रत्येक प्रत्येक ज्ञानांश चित्रज्ञान नहीं है क्योंकि वे ज्ञान क्रमसे भिन्न भिन्नदेशों में विद्यमान रहनेवाले नील, पीत आदिको विषय करते हैं। जैसे कि देवदत्त, जिनदत आदिक भिन्नसंतानों के इस प्रकार के 85
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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