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स्वार्थचिन्तामणिः
यद्यपि चित्रज्ञानके अनेक आकार हैं किंतु उनका पृथक्करण नहीं हो सकता है | अतः यदि उन अनेक आकारवाले ज्ञानोंको एक माना जावेगा तो उसी प्रकार अनंत पर्यायोंमें रहनेवाला आत्मा भी पृथक् न कर सकने के कारण एक क्यों न माना जावे भ्यायं समान होना चाहिये ।
क्रमञ्जुवामात्मपर्यायाणामशक्यविवेचनत्वमसिद्धमिति मा निचैषीः यस्मात् -
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बौद्धों के प्रति आचार्य कह रहे हैं कि कम क्रमसे होने वाली आत्माकी पर्यायोंका पृथक् न कर सकनापन असिद्ध है । इस प्रकार निश्चय न कर बैठना, जिस कारण से कि
यथैकवेदनाकारा न शक्या वेदनान्तरम् ।
नेतुं तथापि पर्याया जातुचित्पुरुषान्तरम् ॥ १६२ ॥
जिस प्रकार एक विज्ञानकी लडीके आकार दूसरे ज्ञानमें ले जानेको अशक्य हैं तैसे दी देवदत्तकी आमा सुख, दु:ख आदि पर्याय भी दूसरे यज्ञसकी आत्मामें कमी नहीं प्राप्त किये जा सकते हैं अतः अशक्यविवेचनत्व हेतु दोनों में रह गया ।
ननु चात्मपर्यायाणां भिन्नकालतया वित्तिरेव शक्यविवेचनत्वमिति चेसह चित्रज्ञानाकाराणां भिन्नदेशतया वित्तिर्विवेचनमस्तीत्यशक्यविवेचनत्वं माभूत् तथाहि
बौद्ध अनुनय करते हैं कि एक आत्माकी नाना ज्ञान, सुख, आदि पर्यायोंकी मिन मिश्र काल वृद्धि होकर प्रतीति हो जाना ही उनका पृथग्भाव कर सकना है । यदि बौद्ध ऐसा करेंगे au तो चित्रज्ञान आकारोंका भी भिन्न भिन्न देशमै हुये रूपसे वेदन होना ही पृथक् कर सकना है । इस तरह चित्रज्ञानके आकारों में भी पृथक् न कर सकनापन न होगा, सो ही स्पष्ट कर अगली बाकि कहते हैं
भिन्नकालतया वित्तिर्यदि तेषां विवेचनम् ।
भिन्नदेशतया वित्तिर्ज्ञानाकारेषु किन्न तत् ॥ १६३ ॥
यदि भिन्न भिन्न कालमें वर्त ने रूपसे ज्ञप्ति होना ही आत्माकी पर्यायोंका पृथभाव करना है तो मित्र देशोंमें रहना, रूपसे जानना ही क्यों नहीं चित्रज्ञानके आकारोंका पृथक् कर सकना माना जाता है ? बताओ। भिन्ना भिन्ना देशा येषां ते भिन्नदेशास्तेषां भावो भिमदेशता, तया भिन्नदेशतया, यों निरुक्ति करना ।
न हि चित्रपटनिरीक्षणे पीवाद्याकाराश्वित्रवेदनस्य भिन्नदेशा न भवन्ति ततो बहिस्तेषां भिमदेशवाविष्ठान विरोधात् ।