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________________ तत्त्वार्थचिन्तामणिः बौद्धोंका यह भी मंतव्य हो कि वेध आकार, वेदनाकार और संवित्ति आकार आदिको प्रांतपना हम केवल संवेदन (अद्वैत) की सत्यता से सिद्ध नहीं करते है। किंतु वेद्य आदिकी यांतताको अनुमानसे सिद्ध करते हैं। जिस कारण अन्योन्याश्रय दोष हमारे ऊपर लागू नहीं हो पाता है । इस प्रकार बौद्धोंका वह कहना युक्तियोंसे रहित है। क्योंकि आपके पास कोई समीचीन हेतु नहीं है । जिससे कि अनुमान द्वारा बेथ आदि आकारोंको प्रांतपना सिद्ध कर डालो । विवादगोचरो वेद्याद्याकारो भ्रान्तभासजः । अथ स्वप्नादिपर्यायाकारवद्यदि वृत्तयः ॥ १३२ ॥ विभ्रान्त्या भेदमापन्नो विच्छेदो विभ्रमात्मकः । विच्छेदत्वाद्यथा स्वप्नविच्छेद इति सिध्यतु ॥ १३३ ॥ ६०३ इसके अनश्वर गौद्ध अपना कथन प्रारम्भ करते हैं कि विवादमै विषय पढा हुआ वे अंश आदिका भेद या वेशभेद, आकारभेद ये सब भिन्न भिन्न आकार ( पक्ष ) भ्रांत ज्ञानसे उत्पन्न हुए हैं ( साध्य ) भिन्न भिन्न ग्राह्य आदि आकारपना होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्न, मूच्छित, या मत अवस्था अनेक भिन्न भिन्न ग्राह्य आकारवाल भ्रांतज्ञान हो जाते हैं । आचार्य कहते हैं कि यदि इस प्रकारसे तुम बौद्ध अब अनुमानकी प्रवृत्तियां करोगे तो यह भी अनुमान सिद्ध हो जाने किविपर्यय या तज्ञानसे मेदको प्राप्त हुआ अर्थात् सच्चे प्रमाणस्वरूप विशेष स्वसंवेदन ज्ञानका क्षण क्षण बदलते हुए बीचमै व्यवधान होना भी ( पक्ष ) विश्रम स्वरूप है ( साध्य ) बिच्छेद होनेसे ( हेतु ) जैसे कि स्वप्नका विच्छेद ( अन्वयदृष्टांत ) । इस अनुमान से विच्छेदको भी भ्रमपना सिद्ध हो जाओ, जो कि बौद्धोंको अनिष्ट है । बौद्ध जन सवेदनको मानते हुए भी संवेदन के क्षण क्षणके परिणामों में नीचमें विच्छेद पड़ जाना इष्ट करते हैं। तभी तो उनका क्षणिकत्व मन सकेगा । यदि न्यारे न्यारे विच्छेदोंका होना भी भ्रांत हो जावेगा तो ज्ञान निष्य, एक, अन्वमी, हो जावेगा । इससे तो ब्रह्मवादियों की पुष्टि होवेगी । न हि स्वप्नादिदशायां प्रायाकारत्वं भ्रान्तत्वेन व्याप्तं दृष्टं न पुनर्विच्छेदत्वमिति शक्यं वक्तुं प्रतीतिविरोधात् । I बौद्ध लोग एकान्तरूपसे विशेषतयको मानते हैं । उनके यहां सामान्य पदार्थ वस्तुभूत नहीं माना गया है | पद्दिले क्षणका परिणाम उत्तरक्षणके परिणामसे न्यारा है । एक ही आत्मा हुआ देवदता ज्ञान यशदवज्ञान से विभिन्न है। व्यक्तियोंकी और कालकी अपेक्षासे सब परिणामों में व्यवधान करनेवाला विच्छेद माना गया है | संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध सोती हुयी या मद, मूच्छित आदि अवस्था होनेवाले ज्ञानोंके प्राह्य अंश और माइक अंशोंको भ्रमरूप समझते हैं। और इस
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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