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तत्त्वार्थचिन्तामणिः
प्रमाणामकान तो स्व और अर्थरूपमायके ग्राहक ही देखे जाते हैं । जो पदार्थ सदा सर्व स्थानों में सर्व ही व्यक्तियों के द्वारा ठीक ठीक जाना जारहा है, उसको भ्रांत नहीं कह सकते हैं। अन्यथा समी सम्माज्ञान प्रांत होजावेंगे । दूसरोंका खण्डन करते करते अपने इष्ट की भो क्षति हो जावेगी ।
यथैवारामविभ्रान्तो पुरुषाद्वैतसत्यता। तत्सत्यत्वे च तद्धान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः ॥ १३० ॥ तथा वेधादिविभ्रान्तौ वेदकाद्वैतसत्यता ।।
तत्सत्यत्वे च तद्धान्तिरित्यन्योन्यसमाश्रयः ॥ १३१ ॥
घट, पर, देवदत्त, जिनदत्त, सूर्य, चंद्रमा आदि भिन्न पर्याय भ्रांत हैं । एक ब्रह्म ही सत्य है । ऐसा कहनेवाले अमवादियों के ऊपर संवेदनाद्वैतवादी बौद्ध यह अन्योन्याश्नय दोष ठीक उठाते हैं कि घट, पट, आदि अनेक मिन्न पर्यायोंका भ्रान्तपना सिद्ध होनेपर तो अमाद्वैतका सचापन सिद्ध हो और उस प्रमाद्वैतका सचापन सिद्ध होनेपर उन षट, पट आदि अनेक भिन्न पर्यायोंका भ्रांतपना सिद्ध होवे । जैसे ही यह अन्योन्याश्रय दोष ब्रह्मवादियों के ऊपर उठाया जाता है वैसे ही आपके ऊपर भी यों परस्पराश्रय दोष अच्छे ढंगसे लागू है। या वे ब्रह्माद्वैतवादी मी तुमसे कह सकते हैं कि वेध अंश, घेदक अंश, ममाणस्व अंश, घट, पट आदि अनेक भिन्न पदायोंके भ्रांतरूप सिद्ध होनेपर तो संवेदनाद्वैतका सच्चापन सिद्ध होवे । और उस अकेले संवेदनाद्वैतकी सपाई सिद्ध होनेपर उन वेष आदि भिन्न तत्वोंकी भ्रांति होना सिद्ध होवे। दोनों अद्वैतों में इस प्रकार अन्योन्याश्रय दोष समान है।
कथमयं पुरुषाद्वैतं निरस्य ज्ञानाद्वैत व्यवस्थापयेत् ।
यह निधारा बौद्ध पुरुषाद्वैतका खण्डन करके अपने ज्ञानाद्वैतकी व्यवस्था कैसे करा सकेगा ! बनाओ। क्योंकि दूसरेके खण्डनमें जो युक्ति दी जा रही है, वही युक्ति इस पर भी लागु हो जाती है । "काने | कानेको पलान, मियां आप ही ते जान " यह लौकिकन्याय दोनोपर एकसा घट जाता है। एक मियां साहिबके यहां एक काना घोरा था। उसका सईस मी काना था। इस पर यह बलिहारी दी कि वे मिशं भी एकाझ थे । एक दिन मियांजीने निरादरके साथ नौकरफो पोडा सजाने के लिये आज्ञा दी कि ओ काने (नौकर ) काने (घोडा) को पलान । तम नौकरने भी कटाक्षसहित उत्तर दिया कि मियांजी! आप अपनेको समझ लीजिये । ऐसे स्थलोंपर दोनों ओरसे दोनों में ही समान दोष आ जाते हैं। समाधान भी एकसा पडता है।
स्यान्मतं, न वेद्याधाकारस्य प्रान्तता सविन्मात्रस्य सत्यस्वात्साध्यते किं त्वनुमानाचतो नेतरेतराश्रयः इति तदयुक्तं, लिंगाभावात् ।