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सस्वाचिन्तामाणिक
आस्माने जान लिया, वह ज्ञानांतरसे जाना या स्वही करके जाना ! बताओ। यहां मी आप पूर्वमें कहे हुए के सदृश्च तृतीयज्ञानसे द्वितीयज्ञानका जानना मानोगे तो हम पुनः विकरुप उठावेंगे कि - बह तृतीय ज्ञान प्रत्यक्षरूप है या परोक्षस्वरूप है ? कहिये । इस प्रकारसे बार बार पस्कर देकर पुनः उन्हीं विकल्पोंकी आवृत्ति की जावेगी, अतः यह आपके ऊपर यह चक्रकदोष हुआ, ज्ञानांतर या स्वतः तथा प्रत्यक्ष या परोक्ष और स्वयंज्ञात इन तीनोंका चक्कर देकर अनवस्वामित चक्रकदोष है।
___ स्वतो ज्ञानमात्मा संवेदयते स्वरूपवदिति चेत् तथैव शानमर्थ स्वच्च स्वतः किन वेदयते ? यता परोक्षज्ञानवादो महामोहविजृम्भित एव न स्यात् ।।
आस्मा जैसे अपने स्वरूपको अपने आप जान लेता है वैसे ही ज्ञानका मी अपने आपसे संवेदन कर लेता है। यदि मीमांसक आप ऐसा कहोगे तब तो उस ही प्रकार ज्ञान भी अपनेको
और बहिरापदायोंको अपने आपसे क्यों नहीं जान लेवेगा ! जिससे कि मीमांसकोंके द्वारा धानका सर्वषा परोक्ष माननेका उठाया हुआ और पक्षपरिग्रहको कह रहा पूर्वपक्ष गाड मोहांधकारका ही विकार न कहा जावे । अर्थात् जैसे आत्मा अपनेको और ज्ञानको जान लेता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपनेको और अर्थको स्वशक्तिसे जान लेता है । मीमांसकोंका हठसे शानको परोक्ष कहते जाना केवल अपने आगमकी मिथ्याश्रद्धाका कुफल है। ज्ञानका स्वभाव सूर्यके समान स्व और परका प्रकाश करना है । मिथ्याज्ञान भी स्त्रको जानने में प्रमाणरूप है। क्योंकि वह सच्चे स्वसंवेदनप्रत्यक्षसे स्वयं अपने आपको जान रहा है। बहिरा विषयके न ग्रहण करनेकी अपेक्षासे सीपमें चांदीके ज्ञानको मिथ्याज्ञान कहा है " भावप्रमेयापेक्षायां प्रमाणाभासनिङ्गवः " श्रीसमंतमद्राचार्य महाराज संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय तथा केवल इन सम्पूर्ण ज्ञानोंको स्वांशके ग्रहण करनेमें प्रमाणस्वरूप मानते हैं। झूठ बोलनेवाला यदि अपनेको असत्य बोलनेवाला कहे तो वह उस अंशम सत्य वक्ता ही है। अतः जानके परोक्षपनेका भाग्रह छोडकर मीमांसकोंको झामका प्रत्यक्ष स्वरूपस्वसेवदन होना अभीष्ट करना चाहिये । अलं वावदूक्तया ।
कथञ्चात्मा स्वसंवेयः संवित्तिर्नोपगम्यते । येनोपयोगरूपोऽयं सर्वेषां नाविगानतः ॥ २२५ ॥
आत्मा स्वयं स्वसंवेदनपत्यक्षसे जानने योग्य है, यह ममिति क्यों नहीं स्वीकार की जाती है ! जिससे कि सम्पूर्ण वादी प्रतिवादियोंको निर्दोषपनेसे यह आत्मा ज्ञानोपयोगस्वरूप सिद्ध न हो सके । भावार्थ- स्वसंवेदन प्रत्यक्षसे आत्मा उपयोगस्वरूप सिद्ध हो जाता है ।
कृतः पुनरुपयोगात्मा नरः सिद्ध इति चेत्