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३.८
तत्वार्यचिन्तामणिः
हो पावेगी। ऐसा कहना तो ठीक नहीं जचता है। क्योंकि आपने उस आत्माको ज्ञानका स्वसंवेदन प्रत्यक्ष करनेवाला नहीं माना है। जो ज्ञानका स्वसंवेदन करता है, वही स्वका संवेदन कर पाता है। किन्तु जो ज्ञानका वेदक नहीं है, वह अपना भी संवेदक नहीं है । यदि आत्माको उस इनका संवेदक मानोगे तो ऐसी दशाम उस आत्माको अर्थका संवेदकपना भी क्यों नहीं होगा। भावार्थभास्मा और ज्ञान दोनों ही सूर्यके समान स्थको और परको प्रकाश करनेवाले पदार्थ हैं। वे स्वको और अर्थको अवश्य जानते हैं । आत्मा और ज्ञानका परोक्ष मानना अतीव प्रकाशमान दीपकका उस कोठरी में छिपाना है, जिसमें रखी हुयी उससे प्रकाशित छोटी सुई तकको हम देख रहे हैं।
स्वतोऽर्थान्तरं कश्चिद् ज्ञानमात्मा संवेदयते न पुनरर्थमिति किंकृतोऽयं नियमः ?
अपनसे किसी अपेक्षा करके भिन्न माने गये ज्ञानको आमा बदिया जान लेता है। किंतु फिर अपने से सर्वथा भिन्न हो रहे अर्थको नहीं जान पाता है ऐसा यह नियम किसने किया है। बताओ तो सही क्या सूर्य अपनी किरणोंका प्रकाश करें और गृह, नदी, पर्वत आदिका प्रकाश न करे ! ऐसे थोथे नियम बनाना क्या न्याय्य है ! अर्थात् नहीं !
संवेदयमानोपि ज्ञानमात्मा ज्ञानान्तरेण संवेदयत्ते स्वतो वा ? ज्ञानान्तरेण चेत, प्रत्यक्षेणेतरेण वा ? न तावत् प्रत्यक्षेण, सर्वस्य सर्वज्ञानस्य परोक्षस्वोपगमात् । नापीसरेण ज्ञानेन सन्तानान्तरज्ञानेनेन तेन शातुमशक्तेः । स्वयं झातेन चेत् ज्ञानान्तरेण स्वतो वा ! झानान्तरेण चेत् प्रत्यक्षेणेतरेण वेत्यादि पुनरावर्तत इति चक्रकमेतत् ।
____आपने आस्माको ज्ञानका ही संवेदन करनेवाला माना है । इस पर हम जैन आपसे पूंछते है कि ज्ञानको संवेदन करनेवाला भी वह आत्मा क्या दूसरे ज्ञानमे प्रकृतज्ञानका संवेदन करता है ! या स्वयं अपने द्वारा ही ज्ञानको जान लेता है। बतलाइये । यदि दूसरे अन्यज्ञानसे इस ज्ञानका जानना मानोगे तो यहां प्रश्न करेंगे कि वह दूसरा ज्ञान क्या स्वयं प्रत्यक्षस्वरूप है ! या परोक्षरूप ! जिस करके ज्ञान जान रहा है। कहिये, प्रथम विकास अनुसार यदि दूसरे स्वयं प्रत्यक्ष हो रहे ज्ञानसे प्रकृतज्ञानका जानना मानोगे सो तो ठीक नहीं है, कारण कि आपको अपसिद्धांत दोष होगा क्योंकि आपने सभी आत्माओंके सम्पूर्ण ज्ञानोंको परोक्ष स्वीकार किया है । द्वितीय पक्षके अनुसार यदि न्यारे परोक्षज्ञानसे ज्ञानका जानना इष्ट करोगे तो अन्यसंतान अत्माओंके ज्ञान करके जैसे उन आत्माओंसे जाने हुए पदार्थोका हम ज्ञान नहीं कर सकते हैं क्योंकि उन आत्माओंके ज्ञानोंका हमको प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है । उसी प्रकार हमारे उस परोक्षज्ञानसे भी हम ज्ञान, घट आदि तन्त्रोंको जान नहीं सकते हैं।
यदि आप मीमांसक आघमें उठाये गये द्वितीय विकल्प के अनुसार स्वयं जाने हुए परोक्षशानसे आत्माको जानका मानना इष्ट करेंगे तब तो हम पुनः पक्ष उठायेंगे कि द्वितीय ज्ञानको