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तस्वार्थचिन्तामाणिः
ज्ञानके द्वारा उन प्रवृत्तियों के होने में कोई बाधक नहीं है। यों चे वृत्तियां भी बाघारहित होनेके कारण समीचीन हैं । मावार्थ-सोते हुए मनुष्य के जैसे चेतनपनेके कार्योको आप मानते हैं वैसे ही ज्ञानके द्वारा होते हुये कार्योको मी आत्माके कार्य मानो। वस्तुतः चेतनपने और ज्ञानमें कुछ अंतर नहीं है ।
वीरणादौ चैतन्याभावे प्राणादिवत्तीनामभावनिश्चयामिश्चितव्यतिरेकाम्यस्ताभ्यः सुषुप्तौ चैतन्यसिद्धिरिति चेत् ।
____ सांख्य कहते हैं कि कोरीके द्वारा तन्तुओंको स्वच्छ सुथरा करनेके लिये खसके बने हुए कूचेमें या तुरी, वैमा आदि चैतन्य महानगर चासोच्छीस लेना, नाडी चलना आदि प्रवृत्तियों के अभावका निश्चय हो रहा है । इस कारण निश्चित्त कर लिया है साध्यके बिना हेतुका अभाव जिनका ऐसी व्यतिरेकव्याप्तिवाली उन श्वासोछास आदिकी प्रवृत्तियोंसे गाढ सोती हुयी अवस्थामै चैतन्यकी सिद्धि अनुमानसे कर ली जाती है, किंतु ज्ञानकी सिद्धि नहीं हो पाती है, क्योंकि बैतन्य के साथ ही प्राणवायु चलने आदिको व्याप्ति है। अब आचार्य बोलते हैं कि यदि सांख्य पेसा कहो तो
प्राणादयो निवर्तन्ते यथा चैतन्यवर्जिते । वीरणादौ तथा ज्ञानशून्येऽपीति विनिश्चयः ॥ २३८ ॥
हम वैसे ही व्यतिरेकको ज्ञानके साथ घटाते हैं । सुनिये ! जैसे चैतन्यसे रहित स्वसके कूचे, तुरी, तन्तु आदिमें श्वासोच्छास चलना, नाडीकी गति, अवयवोंका फरफना आदि कर्म निवृत्त होजाते हैं वैसे ही उन कूचे, तुरी आदिमें ज्ञानरहित होनेपर भी प्राण आदिक की निवृत्ति होनेका विशेष निश्चय से रहा है, अतः वे ज्ञानके भी कार्य सिद्ध हुए। भावार्थ-ज्ञान और चैतन्य दो पदार्थ नहीं है, आत्माके एक ही गुण है। शब्दका मेद है, अर्थभेद नहीं । चेतना तीनों कालों में रहनेवाला गुण हैं और ज्ञान उसकी अमिन्न पर्याय है । अतः अन्वयव्यतिरेक द्वारा जो चैतन्यकी न्याप्ति श्वास लेने आदिके साथ बनाई है वह ज्ञानकी भी समझनी चाहिये । ज्ञान आस्माका परिणाम है प्रकृतिका नहीं।
न हि चेतनत्वे साध्ये रिक्षितन्यतिरेका माणादिवृत्तयो न पुननिात्मकतायामिति शक्यं वक्तुम् , तदभावेऽपि तासां वीरणादावभावनिर्णयात् । चैतन्याभावादेव तत्र ता न भवंति न तु विज्ञानामावादिति कोशपानं विधेयम् ।
आमाके वेतनपनेको साध्य करनेपर श्वासोच्छ्रास आदि प्रवृतियोंका व्यतिरेक निब्धय चोला हो जावे और आमाको ज्ञान-वरूप सिद्ध करनेपर, माण, अपान आदि प्रवृत्तियोंके व्यतिरकका