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________________ १६६ तत्त्वार्थचिन्तामणिः होरहे दण्ड, छत्र, धूम आदि अनेक हैं और अनुयोगितासम्बन्धसे संयोगके अधिकरण पुरुष, देवदत्त वन, आदि बहुत हैं । अतः संयोगालों के भिन्न भिन्न होनेसे ही संयोगमें भी विलक्षणताको जाननेपाला ज्ञान उत्पन्न हो जावेगा। संयोगगुण- लाधन होनेसे एक ही मान लिया जाये। यदि आप वैशेषिकोंका यह भाव होय कि देवदत्तके गलेमें जंजीरका ढीला संयोग है और अंगुलीमें अंगूठीका कडा संयोग है, चटाईमें तृणोंका शिथिल संयोग है और किवाडों में गर्भकीलकका घनिष्ठ संयोग है। इस तरह संयोगकी प्रतीतियां तो अनेक प्रकारकी देखी जाती है, तो हम जैन भी कहते हैं कि आत्माका परिमाणके साथ और आकाशका एकत्वसंख्याफे साथ नित्य ही समवाय है तथा घटका काले, लाल रूपके साथ और जीवात्माका घटज्ञान पटज्ञानके साथ कभी कभी होनेवाला समवाय है। इस प्रकार समवायसम्बन्धमें भी अनेकपन दीखरहा है, तो फिर समवाय सम्बन्ध भी अनेक मान लेने चाहिये । न्यायप्राप्त पुनः विपरीत पक्षपात नहीं करना चाहिये । समवायिनोनित्यत्वकादाचित्कवाभ्यां समवाये तत्प्रत्ययोत्पत्तौ संयोगिनोः शिथिलत्वनिविडत्वाभ्यां संयोग तथा प्रत्ययः स्यात् । समवायसम्बन्धके आधारभूत आकाश, आत्माके नित्य होनेसे समवायमें भी वह नित्यपन कल्पिस जान लिया जाता है और समवायी माने गये ज्ञान, काळा, लाल, रूपके अनित्य होनेसे समवायमें भी अनित्यपनका ज्ञान उपज जाता है । ऐसा नैयायिकोंके कहनेपर हम जैन भी कह सकते हैं कि संयोग सम्बन्धबाले चटाई, किवाड, कील, रुई आदिके दीले, कडे हो जानेसे संयोगमें भी ढीले, कठिनका इस प्रकार व्यवहारज्ञान कर लिया जायगा, किन्तु संयोगको एक ही मानो । . . स्वतः संयोगिनोनिविडले संयोगोऽनर्थक इति चेत्, स्वतः समकायिनोनित्यत्व समवायोऽनर्थकः किं न स्यात् । ___ संयोगियोंको. अपने आप ही कडा, दीला माननेपर तो संयोगसम्बन्ध मानना व्यर्थ पडता है। क्योंकि भिन्न भिन्न प्रकारके संयोगोंने ही उन संयोगियोंको कडा, ढीला बना दिया था और अब आप संयोगियोंको स्वतः ही कडा, ढीला मानते हो फिर संयोग माननेकी क्या आवश्यकता है ! यदि आप वैशेषिक यों कहोगे तत्र तो स्वयं मूलमै समवाथियों के नित्य और कभी कभी होनसे आपका समवाय भी व्यर्थ पड़ेगा। कारण कि समवायके द्वारा ही सदा ( हमेशा ) समवेत रहना और कभी कभी समवेत रहना परिणाम, ज्ञान, रूप, आदिकमि माना गया था किंतु जब आप समवाययोंको समावसे हो नित्यपना और अनित्यपना मानते हैं तो आपका समवाय भानना भी व्यर्थ क्यों न होगां! उत्तर दो।
SR No.090495
Book TitleTattvarthshlokavartikalankar Part 1
Original Sutra AuthorVidyanandacharya
AuthorVardhaman Parshwanath Shastri
PublisherVardhaman Parshwanath Shastri
Publication Year1949
Total Pages642
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size19 MB
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